Book Title: Jain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Fulchandra Shastri Foundation

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Page 9
________________ अपने शोध-परक दो व्याख्यान प्रस्तुत कर संस्थान को कृतार्थ किया, इस कारण फाउण्डेशन तथा संस्थान दोनों ही उनके अत्यन्त आभारी हैं। मेरा यह सौभाग्य रहा कि प्रो. राजाराम जी के रूड़की आगमन पर सन् २००५ में मैंने उनके साथ बैठकर इस पुस्तक का आद्योपांत वाचन किया। इस व्याख्यान माला की अध्यक्षता प्रो. आर. सी. शर्मा (निदेशक, ज्ञान प्रवाह) ने की तथा विशिष्ट अतिथि का स्थान प्रो. परमानन्द सिंह (इतिहास विभागाध्यक्ष, काशी विद्यापीठ) ने सुशोभित किया। इन मनीषी विद्वानों ने भी पाण्डुलिपियों एवं शिलालेखों को भारतीय प्राच्य-विद्या की अमूल्य धरोहर बतलाते हुए डॉ. जैन के व्याख्यानों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हें नई पीढ़ी के शोध-कार्यों के लिये प्रकाश-स्तम्भ बतलाया। अन्य उपस्थित विद्वानों में अनेक साध्वियाँ, श्रवणबेलगोल के भट्टारक-शिष्य, तथा काशी हिन्दु विश्व विद्यालय एवं स्याद्वाद महाविद्यालय, पार्श्वनाथ जैन शोध संस्थान, काशी विद्यापीठ आदि के शोध पदाधिकारियों, शोधार्थियों, तथा प्राध्यापकों के अतिरिक्त अन्य प्रतिष्ठित नागरिक जिज्ञासु महिलाएँ एवं श्रोतागण भी उपस्थित थे और सभी ने व्याख्यानों का सुरुचि पूर्वक रसास्वादन किया, जिससे फाउण्डेशन तथा संस्थान दोनों ने अपने सारस्वत-प्रयत्न को सफल एवं सार्थक माना। अन्त में मैं श्री जगन्नाथ संस्कृत विश्व विद्यालय पुरी (उड़ीसा) के पूर्व-कुलपति तथा अन्तर्राष्ट्रिय ख्याति प्राप्त प्रो.सत्यव्रत जी शास्त्री, नई दिल्ली के प्रति विशेष रुप से आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने अतिव्यस्त रहते हुए भी समय निकालकर प्रस्तुत ग्रन्थ का मूल्यांकन किया तथा उसके लिये पुरोवाक् लिखकर उसके महत्व को वृद्धिगत किया। हम प्रो.डॉ.(श्रीमती) विद्यावती जैन के भी आभारी हैं, जिन्होंने अस्वस्थ रहते हुए भी उसकी शब्दानुक्रमणिका (Index) तैयार कर ग्रन्थ को सर्वांगीण बनाने में योगदान किया। प्रो. (डा.) फूलचन्द्र जी प्रेमी व्याख्यानमाला का संयोजन शुरू से ही कुशलतापूर्वक करते आ रहे हैं, अतः हम सभी उनके आभारी हैं। प्रो. (डा.) कमलेश कुमार जैन तथा श्री खुशालचन्द जी सिंघई संस्थान के कार्यों में सतत् सहयोगी रहते हैं, अतः वे भी धन्यवाद के पात्र हैं। प्राच्य भारतीय इतिहास के निर्माण के लिये अतिमहत्त्वपूर्ण प्रामाणिक सामग्री माने जाने पर भी यह विधा अभी तक उपेक्षित अथवा प्रायः अछूती ही रही है और मेरी दृष्टि से उस दिशा में यह ग्रन्थ प्रथम प्रकाश-किरणों के रूप में प्रतिष्ठित होगा तथा इससे प्रेरित होकर इस श्रृंखला में आगे भी इसी प्रकार के शोध-कार्य होते रहेंगे, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। इसी आशा एवं विश्वास के साथ, सादर 3ए-१०, हिल व्यू अपार्टमेन्ट अशोक कुमार जैन आई.आई.टी. परिसर रुड़की - २४७ ६६७ (उत्तराखण्ड)

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