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रसोई आदि क्रियाका वर्णन ।
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अर जो बस्तु तजी है भाई, सो कबह जो थाल धराई । तौ उठि बैठे होउ पवित्रा, यह आज्ञा गावै जगमित्रा ॥ दान बिना जीमा मति बीरा, इह आज्ञा धारौ उर धीरा । बिना दान भोजन अपवित्रा, शक्तिप्रमाण दान दो चित्रा || मुनी अर्जिका श्रावक कोई, कै सुश्राविका उत्तम होई । अथवा अत सम्यकदृष्टी, जिंह उर अमृतधारा वृष्टी || इन महाभक्ति करि देहो, तिनके गुण हिरदामें लेहो । अथवा दुखित भुखित नरनारी, पसु-पंखी दुखिया संसारी ॥ अन्न वस्त्र जल सबकों देना, नर भव पाधेका फल लेना । तिर्यचनिकू तृण हू देना, दान तणे गुण उरमे लेना ॥ भोजन करत ओंठ जिन छाडौ, ओठि खाय देही मति भाड़ौ । काहूकू उच्छिष्ट न देनी, यही बात हिरदै धरि लेनी ॥ अन्तराय जो परैं कदापी, अथवा छीवें खलजल पापी । तब उच्छिष्ट तजन नहिं दोषा, इह भाषे बुधजनन्नत पोषा ॥ घृत दधि दूध मिठाई मेवा, जोहि रमोई माहिं जु लेवा । सो सब तुल्य रसोई जानों, यह गुरु आज्ञा हिरदै मानों ॥५०॥ जहा वापर अन्न रसोई, तातें न्यारे राख जोई। जेतौ चहिये तेतौ ल्यावे, आठौ सो बर्तनमें आवै । पाकावस्तुरु भोजन भाई, एक भये बाहिर नहिं जाई । जल पर अन्न तणों पकवाना, सो भोजन ही सादृश जाना || व्यसन रसोई बाहर जायें, सो बढ़वापा नाम कहावै । मौन बिना भोजन बरज्या है, मौन सात श्रुत माहिं को है । भोजन भजन वनान करन्ता, मैथुन वमन मलादि करन्ता ।