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रसोई आदि क्रियाओंका वर्णन ।
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माज धोय पर पूँछ जु राछा, राखौ उज्जल निर्मल आछा । दया सहित करणी सुखदाई, करुणा बिन करणी दुखदाई ॥ २०॥ जीवनकू सन्ताप न देवै, तब आचार तणी विधि लेवें । बिन जिनधर्मा उत्तम वंसा, देइन लेयसु राछनि संसा ॥ श्रावक कुल-किरिया करि युक्ता, तिनके करको भोजन युक्ता । अथवा अपने करको कीयो, आरम्भी श्रावकने लीयौ || अन्यमती अथवा कुलहीना, तिनके करको कबहु न लीना । अन्य जाति जो भीं कोई, तौ भोजन तजवौ है सोई ॥ नीली हरी तजै जो सारी, तासम और नहीं आचारी । जो न सर्वथा छाडी जाई, नौ प्रत्येक फला अलपाई || हरी सुकाव योग्य न भाई, जामे दोष लगे अधिकाई । सूके अन्न औषधी लेवा, भाजी सूकी सब तजि देवा ॥ पत्र - फूल - कन्दादि भखें जे, साधारण फल मूढ चो जे । ते नहिं जानों जैनी भाई, जीभलंपटी दुरगति जाई ॥ पत्र फूल कन्दादि सबै ही, साधारण फल सर्व तजै ही । पर तुम सुनहु विवेकी भैय्या, भेलै भोजन कबहुं न लैया ॥ मात तात सुत बाधव मित्रा, भेले भोजन अति अपवित्रा । महा दोष लागे या माहीं, आमिषको सो संशय नाहीं ॥ अपने भोजनके जे पात्रा, काहूकू नहिं देय सुपात्रा । सो भेले जीमें कहो कैसे, भाषें श्रीजिन नायक ऐसे ॥ माहि सराय न भोजन भाई, जब श्रावकको व्रत रहाई । खन्ति नीचनके घर माही, कबहुं रसोई करणी नाहीं ||३०|| मांस त्यागि व्रत जो दिढ़ धारै, नीचनको संसर्ग न कारें ।