Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 10
________________ किया गया है । मैं समझता हूँ कि भूमिका और उपसंहार एक दूसरे के पूरक होकर मेरे कार्य का संक्षिप्त, किन्तु सम्यक् परिचय दे सकते हैं। इस विषय को लेने का सुझाव मुझे पूज्य गुरुदेव और निर्देशक डॉ० सरनामसिंह शर्मा 'अरुण' से मिला। आपकी दृष्टि इस विषय पर कैसे गयी, यह तो मैं नहीं कह सकता; किन्तु इतना अवश्य कह सकता हूँ कि वह आजकल जैन काव्य की गहन वीथियों में बड़ी तत्परता से घूम रही है । आपसे मुझे जितना आधार और तर्कसम्मत परामर्श मिला है, वास्तव में वही मेरे शोधप्रबन्ध की रीढ़ है। सच तो यह है कि आपके चरणों के समीप बैठकर ही मैं यह कार्य पूर्ण कर सका हूँ, अन्यथा मेरे लिये यह बहुत ही कठिन काम था। आपके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं और मैं समझता हूँ कि ऐसा करना मेरी धृष्टता होगी । कृतज्ञता के दो शब्द लिखकर मैं आपके ऋण से उऋण नहीं होना चाहता। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के प्रणयन में डॉ० रामानन्द तिवारी 'भारतीनन्दन', डॉ. जगदीशप्रसाद शर्मा 'कनक', डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल, श्री अगरचन्द नाहटा, डॉ० प्रेमसागर जैन, प्रो० बाबूराम गुप्त, डॉ० मोहनलाल मेहता, डॉ० राजाराम जैन, डॉ० नरेन्द्र भानावत, डॉ० देवीप्रसाद गुप्त, श्री अनूपचन्द जैन 'न्यायतीर्थ', डॉ० देवेन्द्र कुमार जैन, प्रो० चन्द्रकिशोर गोस्वामी, श्री मोहनलाल शर्मा 'मधुकर', डॉ० दामोदरलाल शर्मा 'तरुण' और श्री नन्दराम वर्मा से भारी सहयोग मिला है। मैं आप सबके प्रति हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। अन्त में मैं स्व. पं० चैनसुखदास, स्व० डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल, स्व० डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री और स्व० श्री महेन्द्र के प्रति भाव-भरे हृदय से श्रद्धा-सुमन अर्पित करता हूँ, जिनकी असीम कृपा का यह फल मैं उनको भेंट भी न कर सका और अब जिनकी स्मृति ही शेष रह गयी है। विनीत १० जनवरी, १९७६ ई० -लालचन्द जैन वनस्थली विद्यापीठ (राजस्थान)

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