Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 7
________________ लेखकी लिपि, भाषा और व्याकरणसे मालूम होता है कि यह प्रतिमा कुशन राजाओंके समयकी है। सं. ७९ भी कुशन राजाओंका संवत् है । संवत् दिवस इत्यादिकी प्रत्येक पूर्ण संख्याके लिए इस लेखमें एक एक चिह्न दिया है। संख्या लिखनेकी यह प्रथा बहुत प्राचीन है। यह भी एक प्रमाण इस संवतके प्राचीन होनेका है । इस संवतमें राजा वासुदेव राज्य करते थे। शक सं०७९ में७९+ ७८ अर्थात् ई० सन् १९७ था। उस समय भी यह स्तूप इतना प्राचीन था कि इसको 'देवनिर्मित ' मानते थे। अतएव यह स्तूप ईसासे कई शताब्दि पहले बना होगा। तीर्थकल्प नामक ग्रंथमें इस — देव-निर्मित-स्तूप ' का वर्णन लिखा है । यह ग्रंथ प्राचीन ग्रन्थोंके आधार पर ईसाकी १४ वीं शताब्दिमें प्रभाचन्द्र द्वारा लिखा गया था। इसमें लिखा है कि पहले यह स्तूप सुवर्णका था और इसमें रत्न जड़े थे । इसे मुनि धर्मरुचि और धर्मघोषकी इच्छासे कुवेरा देवीने श्रीसुपार्श्वनाथको समर्पण किया था। श्रीपार्श्वनाथके समयमें यह स्तूप ईंटोंसे मढ़ा गया और पाषाणका एक मन्दिर इसके बाहर बनाया गया । पुनः वीर भगवानके केवलज्ञान प्राप्त करनेके १३०० वर्ष बाद बप्पट्टि सूरिने इस स्तूपको पार्श्वनाथके निमित्त अर्पण करके इसकी मरम्मत कराई । श्री महावीरको केवलज्ञानकी प्राप्ति ईसासे लगभग ५५० वर्ष पहले हुई थी । अतएव इस स्तूपकी मरम्मत १३०० वर्ष बाद अर्थात् ७५० ई० में हुई होगी। और श्रीपार्श्वनाथके समयमें इसके ईंटोंसे बनाये जानेका काल ईसासे ६०० वर्षसे भी पूर्व निश्चित होता है। यदि हम लेखके 'देव-- १. शक, जो ई० सन् ७८ से शुरू हुआ। २. इसका दूसरा नाम राजप्रसाद है। इस ग्रंथमें स्तूपोंके पूजन इत्यादिका भी वर्णन है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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