Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 64
________________ ५७२ है । सिर्फ दूसरे चरणमें कुछ थोडासा भेद हैं । मिताक्षरामें 'क्षयेऽहनि' से पूर्व — गयायां च ' ऐसा पद दिया है। और इसके द्वारा गयाजीमें जो श्राद्ध किया जाय उसको सूचित किया है । त्रिवर्णाचारमें इसको बदलकर इसकी जगह 'सिद्धक्षेत्रे ' बनाया गया है। . “ आगच्छन्तु महा भागा विश्वेदेवा महाबलाः । ये यत्र योजिताः श्राद्धे सावधाना भवन्तु ते ॥" हिन्दुओंके यहाँ , *विश्वेदेवा ' नामके कुछ देवता हैं जिनकी संख्या १० है। ऊपरका यह श्लोक उन्हींके आवाहनका मंत्र है। मिताक्षरामें इसे विश्वेदेवोंके आवाहनका स्मार्त ‘मंत्र लिखा है। हिन्दुओंके गारुडादि ग्रंथोंमें भी यह मंत्र पाया जाता है। जिनसेन त्रिवर्णाचारमें भी यह मंत्र विश्वेदेवोंके आवाहनमें प्रयुक्त किया गया है। परन्तु जरासे परिवर्तनके साथ । अर्थात् त्रिवर्णाचारमें 'महाबलाः ' के स्थानमें 'चतुर्दश' शब्द दिया है। बाकी मंत्र बदस्तूर रक्खा है। त्रिवर्णाचारके कर्ताने जैनियोंके १४ कुलकरोंको ‘विश्वेदेवा ' वर्णन किया है। इसीलिए उसका यह परिवर्तन मालूम होता है। परन्तु जैनियोंके आर्ष ग्रंथोंमें कहीं भी ऐसा वर्णन नहीं पाया जाता। "आर्तरौद्रमृता येन ज्ञातिनां कुलभूषणाः। उच्छिष्टभागंगृह्णन्तु दर्भेषुविकिराशनम् ॥ अग्निदग्धाश्च ये जीवा येऽप्यदग्धाः कुले मम । भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्तायान्तु परां गतिम् ॥" अर्थात्-जो कोई आर्त या रौद्र परिणामोंके साथ मरे हों, जातियोंके भूषण न हों अर्थात् क्षुद्र मनुष्य हों वे सब दर्भके ऊपर डाले * यथाः- “ऋतुर्दक्षोवसुः सत्यः कामः कालस्तथाध्वनिः (धृतिः ।) रोचकश्वार्द्रवाश्चैव तथा चान्ये पुरूरवाः ॥ विश्वेदेवाभवन्त्येते दशसर्वत्र पूजिताः।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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