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" अनिधाय मुखे पर्ण पूगं खादति यो नरः ।
सप्तजन्मदरिद्रः स्यादन्ते नैव स्मरेजिनम् ॥ २२५ ॥" पाठक गण देखा, कैसा धार्मिक न्याय है ! कहाँ तो अपराध और कहाँ इतनी सख्तसजा ! क्या जैनियोंकी कर्म फिलासोफी और जैनधर्मसे इसका कुछ सम्बन्ध हो सकता है ? कदापि नहीं । यह कथन हिन्दूधर्मके किसी ग्रंथसे लिया गया है । हिन्दुओंके स्मृतिरत्नाकर ग्रंथमें यह श्लोक बिलकुल ज्योंका त्यों पाया जाता है । सिर्फ अन्तिम चरणका भेद है । वहाँ अन्तिम चरण 'नरकेषु निमज्जति' ( नरकोंमें पड़ता है ), इस प्रकार दिया है। त्रिवर्णाचारमें इसी अन्तिम चरणको बदलकर उसके स्थानमें 'अन्ते नैव स्मरोजिनम् ' ऐसा बनाया गया है । इस परिवर्तनसे इतना जरूर हुआ है कि कुछ सजा कम होगई है । नहीं तो बेचारेको, सात जन्म तक दरिद्री रहनेके सिवाय, नरकमें और जाना पड़ता ।
७-ऋतुकालमें भोग न करनेवाली स्त्रीकी गति । जिनसेन त्रिवर्णाचारके १२ वें पर्वमें, गर्भाधानका वर्णन करते हुए, लिखा है कि:
“ ऋतुस्नाता तु या नारी पतिं नैवोपविन्दति । ___ शुनी वृकी शृगाली स्याच्छूकरी गर्दभी च सा ॥ २७ ॥" अर्थात-ऋतुकालमें, स्नानके पश्चात्, जो स्त्री अपने पतिसे संभोग नहीं करती है वह मरकर कुत्ती, भेडिनी, गीदडी सूअरी और गधी होती है। यह कथन बिलकुल जैनधर्मके विरुद्ध है । और इसने जैनियोंकी सारी कर्मफिलासोफीको उठाकर ताकमें रखदिया है । इसलिये कदापि जैनाचार्योका नहीं हो सकता । यह श्लोक भी, ज्योंका त्यों या कुछ परिवर्तनके साथ, हिन्दूधर्मके किसी ग्रंथसे लिया गया मालूम होता है। क्यों कि हिन्दूधर्मके ग्रंथों में ही इस प्रकारकी आज्ञायें प्रचुरताके साथ पाई जाती हैं । उनके यहाँ जब ऋतुस्नाताके साथ भोग न करने पर
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