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हुए भोजनके इस उच्छिष्ट भागको ग्रहण करो। और जो मेरे कुलमें अग्निसे दग्ध हुए हों अथवा जिनको अग्निका दाह प्राप्त न हुआ हो वे सब पृथ्वीपर डाले हुए इस भोजनसे तृप्त होओ और तृप्त होकर उत्तम गतिको प्राप्त होओ। ये दोनों श्लोक पिंड देते समयके मंत्र हैं । दूसरा श्लोक हिन्दुओंक मिताक्षरा और गारुडादि ग्रंथोंमें भी पाया जाता है। और पहले श्लोकका आशय मनुस्मृति तीसरे अध्यायके श्लोक नं० २४५-२४६ से मिलता जुलता है । त्रिवर्णाचारके इन श्लोकोंसे माफ जाहिर है कि पितरगण पिंड ग्रहण करते हैं और उसे पाकर तृप्त होते तथा उत्तम गतिको प्राप्त करते हैं।
एक स्थानपर त्रिवर्णाचारके इसी प्रकरणमें मोदक और विष्टरका चूजन करके और प्रत्येक मोदकादिक पर ' नमः पितृभ्यः' इस मंत्रके उच्चारण पूर्वक डोरी बाँधकर उन्हें पितरोंके लिए ब्राह्मणोंको देना लिखा है। और इस मोदकादिक प्रदानसे पितरोंकी अक्षय तृप्ति वर्णन की है और उनका स्वर्गवास होना लिखा है । यथाः
"......मातृणां मातामहानां चाक्षया तृप्तिरस्तु ।” अनेन मोदक प्रदानेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूपाणां आचार्याणां तृप्तिरस्तु । ' स्वर्गवामोऽस्तु ।" श्राद्धके अन्तमें आशीवाद देते हुए लिखा है कि:'आयुर्विपुलतां यातु कर्णे यातु महत् यश: ॥ प्रयच्छन्तु तथा राज्यं प्रीता नृणां पितामहाः ॥" अर्थात्-आयुकी वृद्धि हो, महत् यश फैले और मनुष्योंके पितरगण प्रसन्न होकर श्राद्ध करनेवालोंको राज्य देवें । इस कथनसे त्रिव र्णाचारने श्राद्धद्वारा पितरोंका प्रसन्न होना प्रगट किया है। इस श्रीकका उत्तरार्ध और याज्ञवल्क्य स्मृतिमें दिये हुए श्राद्ध प्रकरणके
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