Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 14
________________ देती, बल्कि उसमें वैदिकताके बहुत आडम्बर हैं, तथापि सांख्यप्रवचनकारने वेदोंकी दुहाई देकर अन्तमें वेदोंका मूलोच्छेदन करनेमें कुछ भी नहीं उठा रक्खा है । बौद्धकी निरीश्वरता सांख्यदर्शनकी निरीश्वरताका ही रूपान्तर है। इस तरह जब सांख्यदर्शन बौद्धधर्मका मूल है और बौद्धोंकी संख्या सबसे अधिक है, तब कहना होगा कि पृथिवीमें जितने दर्शनशास्त्र अवतीर्ण हुए हैं, उनमें सांख्यके समान बहुफलोत्पादक और कोई नहीं हुआ। ___ इस बातका पता लगाना बहुत कठिन है कि सांख्यकी प्रथमो. त्पत्ति कब हुई थी। संभवतः यह बौद्धधर्मके पहले प्रचारित किया गया था। कपिल मुनि इसके प्रणेता समझे जाते हैं, परन्तु उनके समयादिके जाननेका कोई उपाय नहीं है। इस समय उनके मूल ग्रन्थका या सांख्यसूत्रोंका भी कहीं पता नहीं हैं । बहुत लोगोंका खयाल है कि सांख्यप्रवचन ही कपिलसूत्र है। परन्तु यह ठीक नहीं। क्योंकि उसके भीतर ही इस बातके प्रमाण मौजूद हैं कि वह बौद्ध, न्याय, मीमांसा आदि दर्शनोंके प्रचलित हो जानेपर रचा गया है: इन दर्शनोंका उसमें खण्डन किया गया है। सांख्यदर्शनका मर्म । सांख्यदर्शनका स्थूल मर्म इस प्रकार है:संसार दुःखमय है । जो कुछ थोड़ासा सुख दिखलाई देता है वह दुःखके साथ इस प्रकार मिला हुआ रहता है कि विवेचक उसे दुःखकी श्रेणीमें ही डालते हैं। अतएव यहाँ दुःखकी ही प्रधानता है । जब ऐसा है, तब मनुष्यजीवनका प्रधान उद्देश्य होना चाहिए दुःखमोचन । ज्यों ही किसी पर कोई दुःख पड़ता है त्यों ही वह उसके दूर करनेका उपाय करता है । भूखसे कष्ट हो रहा है, आहार कर लिया} पुत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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