Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 26
________________ ५३४ है और कईका आशय च्युत हो गया है। भूमिकामें कोई महत्त्वकी बात नहीं। उसमें और नहीं तो दो बातोंका उल्लेख अवश्य चाहिए था-एक तो वादिचन्द्रसूरि. कब और कहाँ हुए हैं और दूसरे विजयनरेश तथा सुताराकी कथा किस ग्रन्थसे किस प्रकार संक्षिप्त या परिवर्तित करके ली गई है। इन दो एक त्रुटियोंके सिवाय पुस्तक अच्छी और संग्रहणीय है । भाषा सरल और सबके समझने योग्य है। छपाई सुन्दर है। काव्यप्रेमी सज्जनोंको अवश्य पढ़ना चाहिए। ३२. जैनधर्म-लेखक, श्री उपेन्द्रनाथदत्त । प्रकाशक, कुमार देवेन्द्रप्रसाद जैन, मंत्री सार्वधर्म परिषत्, काशी । पृष्ठसंख्या १६० बिना मूल्य वितरित । पुस्तक बंगला भाषामें है। इसमें १ जैनशब्दकी परिभाषा, २ जैनधर्मके मुख्य तत्त्व, ३ उपदेशक्रम, ४ स्याद्वाद वा अनेकान्तवाद, ५ दार्शनिक सिद्धान्त, ६ तुलनामूलक दार्शनिकत्व, ७ नास्तिकता और आस्तिकता, ८ जैनधर्म और दूसरे धर्मोकी समानता, ९ जैन धर्मानुयायियोंका बहिर्जीवन, १० ऐतिहासिकता, ११ चौवीस तीर्थकर, १२ पन्थ और उसके विभाग, इन बारह निबन्धोंका संग्रह है । निबन्ध पहले बंगलाके 'उद्बोधन' और 'देवालय' नामक पत्रोंमें प्रकाशित हो चुके थे । अब संग्रह करके पुस्तक रूपमें प्रकाशित किये गये हैं। उद्बोधनपत्रके सम्पादककी लिखी हुई लगभग ५० पृष्ठकी एक विस्तृत भूमिका भी इस पुस्तकमें जोड दी गई है । इसमेंके कुछ निबन्ध सेठ हीराचन्दजी नेमीचन्दजीके — जैनधर्मका परिचय' नामक व्याख्यानके कुछ घटा बढ़ा कर किये हुए अनुवाद हैं और कुछ दूसरे लेखोंके रूपान्तर हैं। तुलनामूलक दार्शनिकत्व आदि दो तीन निबन्ध लेखक महाशयके स्वतन्त्र रूपसे लिखे हुए हैं। निबन्धोंके लिखनेका ढंग अच्छा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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