Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 55
________________ ५६३ " नास्तिक्य भावाद यश्चापि न तर्पयति वै सुतः। पिबन्ति देह रुधिरं पितरो वै जलार्थिनः ॥" जेनमेन त्रिवर्णाचार (चतुर्थपर्व ) में भी स्नानके बाद ‘तर्पण' को नित्य कर्म वर्णन किया है और उसका सब आशय और अभिप्राय प्रायः वही रक्खा है जो हिन्दुओंका सिद्धान्त है । अर्थात् यह प्रगट किया है कि पितरादिकको पानी या तिलोदकादि देकर उनकी तृप्ति करना चाहिए। नर्पणके जलकी देव पितरगण इच्छा रखते हैं, उसको ग्रहण करते हैं और उससे तृप्त होते हैं। जैसा कि नीचे लिखे वाक्योंसे प्रगट है: "असंस्काराश्च ये केचिन्जलाशाः पितरः सुराः । तेषां संतोषतृप्त्यर्थ दीयते सलिलं मया ॥" अर्थात्-जो कोई पितर संस्कारविहीन मरे हों, जळकी इच्छा रखते हों और जो कोई देव जलकी इच्छा रखते हों उन सबके संतोष और तृप्तिके लिए मैं पानी देता हूँ अर्थात् तर्पण करता हूँ। " उपघातापघताभ्यां ये मृता वृद्धबालकाः। . युवानवामगभीश्च तेषां तोयं ददाम्यहम् ॥” अर्थात्--जो कोई बूढे, बालक, जवान और गर्भस्थ जीव उपचात या अपघातसे मरे हों, मैं उन सबको पानी देता हूँ। “ये पितमातद्वयवंशजाताः, गुरुस्वसृबंधू च बान्धवाश्च । येलुप्तकमीश्च सुताश्च दाराः, पशवस्तथालोपगतक्रियाश्च ॥ ये पंगवश्वान्धविरूपगर्भाः, आमच्युता ज्ञातिकुले मदीये । आषोडशाद्वा (?) द्वयवंशजाताः, मित्राणि शिष्याः सुतसेवकाश्च ॥ पशुवृक्षाश्च ये जीधा येच जन्मान्तरंगताः। ते सर्वे तृप्तिमायान्तु स्वधातोयं ददाम्यहम् ॥" इन पद्योंमें उन सबको तर्पण किया गया है, जो पितृवंश या मातृवंशमें उत्पन्न हुए हों, गुरुबंधु या स्वस-बंधु हों, लुप्तकर्मा हो, सुता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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