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स्नान करनेको निषेध करते हैं । और उसे साफ तौर पर लोकमुढता
बतलाते हैं । यथा:
" आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोनिपातश्च लोकमूढं निगद्यते ॥
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- रत्नकरण्ड श्रावकाचारः ।
सिद्धान्तसार ग्रंथ में पृथ्वी, अग्नि, जल और पिप्पलादिकको देवता माननेवालों पर खेद प्रगट किया गया हैं । यथा:
“ पृथिवीं ज्वलनं तोयं देहली पिप्पलादिकान् । देवतात्वेन मन्यंते येते चिन्त्या विपश्चिता ॥ ४४॥”
इसीप्रकार जैन शास्त्रों में बहुतसे प्रमाण मौजूद हैं, जो यहाँ अनावश्यक समझकर छोड़े जाते हैं। और जिनसे साफ प्रगट है कि, न नदियाँ धर्मतीर्थ हैं, न तीर्थदेवता और न उनमें स्नान करनेसे पापों का नाश हो सकता है । इस लिए त्रिवर्णाचारका यह सब कथन जैनमतके विरुद्ध है ।
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४ - पितरादिकका तर्पण ।
हिन्दुओंके यहाँ स्नानका अंगस्वरूप, ' तर्पण' नामका एक नित्यकर्म वर्णन किया है। पितरादिकों को पानी या तिलोदक ( तिलोंके साथ पानी ) आदि देकर उनकी तृप्ति की जाती है, इसीका नाम तर्पण है। तर्पणके जलकी देव और पितरगण इच्छा रखते हैं, उसको ग्रहण करते हैं और उससे तृप्त होते हैं । ऐसा उनका सिद्धान्त है । यदि कोई मनुष्य नास्तिक्य भावसे, अर्थात् यह समझकर कि देव पितरोंको जलादिक नहीं पहुँच सकता, तर्पण नहीं करता है तो जलके इच्छुक पितर उसके देहका रुधिर पीते हैं; ऐसा उनके यहाँ योगि याज्ञवल्क्यका वचन है । यथा:
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