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तीर्थोपर स्नानके लिए जाते हैं । हिन्दुओंके 'आह्निक सूत्रावली' नामके ग्रंथमें हेमाद्रिकृत एक लम्बा चौड़ा स्नानका 'संकल्प' दिया है। इस संकल्पमें बड़ी तफसीलके साथ, गद्यपद्य द्वारा, उन पापोंको दिखलाया है जिनको गंगादिक नदियाँ दूर कर सकती हैं और जिनके दूर करनेकी स्नानके समय उनसे प्रार्थना की जाती है । शायद ही कोई पापका भेद ऐसा रहा हो जिसका नाम इस संकल्पमें न आया हो । पाठकोंके अवलोकनार्थ यहाँ उसका कुछ अंश उधृत किया जाता है:
" रागद्वेषादिजनितं कामक्रोधेन यत्कृतम् । हिंसानिद्रादिजं पापं भेदष्टया च यन्मया ॥ परकार्यापहरणं परद्रव्योपजीवनम् । ततोऽज्ञानकृतं वापि कायिकं वाचिकं तथा ॥ मानसं त्रिविधं पापं प्रायश्चित्तैरनाशितम् । तस्मादशेष पापेभ्यस्त्राहि त्रैलोक्यपावनि ॥" "...इत्यादि प्रकीर्णपातकानां एतत्कालपर्यंत संचितानां लघुस्थूलसूक्ष्माणां च निःशेषपरिहारार्थ...देवब्राह्मणसवितासूर्यनारायणसन्निधौ गंगाभागीरथ्यां अमुक तीर्थे वा प्रवाहा
भिमुखं स्नानमहं करिष्ये।" . इससे साफ जाहिर है कि त्रिवर्णाचारका यह सब कथन हिन्दूधमका कथन है । हिन्दूधर्मके ग्रंथोंसे, कुछ नामादिकका परिवर्तन करके, लिया गया है । और इसे जबरदस्ती जैनमतकी पोशाक पहनाई गई है। परन्तु जिस तरह पर सिंहकी खाल ओढ़नसे कोई गीदड सिंह नहीं बन सकता इसी तरह उस स्नानप्रकरणमें कहीं कहीं अर्हन्तादिकका नाम तथा जैनमतकी १४ नदियोंका सूत्रादिक दे देनेसे यह कथन जैनमतका नहीं हो सकता। जैनियोंके प्रसिद्ध प्राचार्य श्रीसमन्तभद्र स्वामि नदीसमुद्रोंमें, इस प्रकार धर्मबुद्धिसे,
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