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विधान पाया जाता है और न जैनियोंकी प्रवृत्ति ही इस रूप देखनेमें आती है।
३-नदियोंका पूजन और स्तवनादिक । जिनसेन त्रिवर्णाचारके चौथे पर्वमें, एक बार ही नहीं किन्तु दो बार, गंगादिक नदियोंको तीर्थ देवता और धर्मतीर्थ वर्णन किया है और साथ ही उन्हें अर्घ चढ़ाकर उनके पूजन करनेका विधान लिखा है । अर्घ चढ़ाते समय नदियोंकी स्तुतिमें जो श्लोक दिये हैं उनमेंसे कुछ श्लोक इस प्रकार हैं।
" पद्महदसमुद्भूता गंगा नाम्नी महानदी । स्मरणाज्जायते पुण्यं मुक्तिलोकं च गच्छति ॥ केसरीदहसंभूता रोहितास्या महापगा। तस्याः स्पर्शन मात्रेण सर्वपापं व्यपोहति ॥ महापुंडह्रदोद्भता हरिकान्ता महापगा । सुवर्णार्घप्रदानेन सुखमाप्नोति मानवः ॥ रुक्मी-शिखरिसंभूता नारी स्त्रोतस्विनी शुभा । स्वर्णस्तेयादिजान्पापान ध्यानाच्चैव विनश्यति ॥ रुक्मिणीगिरिसंभूता नरकान्ताऽसुसेवनात् । पातकानि प्रणश्यति तमः सूर्योदये यथा ॥ अनेक हृदसंभूता नद्यः सागरसंयुताः।
मुक्तिसौभाग्यदा यश्च सर्वेतीर्थाधिदेवताः ॥" इन श्लोकोंमें लिखा है कि-गंगानदीके स्मरणसे पुण्यकी प्राप्ति होती है और स्मरण करनेवाला मुक्तिलोकको चला जाता है; रोहितास्या नदीके स्पर्शनमात्रसे सब पाप दूर हो जाते हैं; हरिकान्ता नदीको सुवर्णार्घ देनेसे सुखकी प्राप्ति होती है; नारी नदीके ध्यानसे ही चोरी आदिसे उत्पन्न हुए सब पाप नष्ट हो जाते हैं; नरकान्ता नदीकी सेवा करनेसे सर्व पाप इस तरह नाश हो
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