Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 60
________________ ५६८ जाता है उसका नाम श्राद्ध है । * हिन्दुओंके यहाँ तर्पण भौर श्राद्ध, ये दोनों विषय करीब करीब एक ही सिद्धान्त पर अवस्थित हैं। दोनोंको ' पितृयज्ञ ' कहते हैं । भेद सिर्फ इतना है कि तर्पणमें अंजलिसे जल छोड़ा जाता है किसी ब्राह्मणादिकको पिलाया नहीं जाता। देव पितरगण उसे सीधा ग्रहण कर लेते हैं और तृप्त हो जाते हैं। परन्तु श्राद्धमें ब्राह्मणोंको भोजन खिलाया जाता है-या सूख अन्नादिक दिया जाता है । और जिसप्रकार ' लैटर बक्स' में डाली हुई चिठी दूरदेशान्तरोंमें पहुँच जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मणोंके पेटमेंसे वह भोजन देव पितरोंके पास पहुँचकर उनकी तृप्ति कर देता है । इसके सिवाय कुछ क्रियाकांडका भी भेद है। त्रिवर्णाचारके कर्ताने जब देव पितरोंको पानी देकर उनका विस्तारके साथ तर्पण किया है तब वह श्राद्धको कैसे छोड़ सकता था ?-पितरोंकी अधरी तृप्ति उसे कब इष्ट हो सकती थी ?-इसलिए उसने श्राद्धको भी अपनाया है । और हिन्दुओंका श्राद्धविषयक प्रायः सभी क्रियाकांड त्रिवर्णाचारमें दिया है। जैसा कि-श्राद्धके नित्य, नैमित्तिक, दैविक, एकतंत्र, प्रार्वण अन्वष्टका. वृद्धि, क्षयाह, अपर-पक्ष, कन्यागत, गजच्छाया और महालयादि भेदोंका कथन करना; श्राद्धके अवसर पर ब्राह्मणोंका पूजन करना; नियुक्त ब्राह्मणोंसे ' स्वागतं, ' ' सुखागतं ' इत्यादि निर्दिष्ट प्रश्नोत्तरोंका किया जाना; तिल, कुश और जल हाथमें लेकर मासादिक तथा * श्राद्धः-शास्त्रोक्त विधानेन पितृकर्म इत्यमरः । पित्रुद्देश्यक श्रद्धयानादि दानम् । श्रद्धया दीयते यस्मात् श्रादं तेन निगद्यते ' इति पुलस्त्य वचनात् श्रद्धया अन्नादेदीनं श्राद्धं इति वैदिक प्रयोगाधीन यौगिकम् । इति श्राद्धतत्त्वं । अपि च सम्बोधन पदोपनीतान् पित्रादीन् चतुर्थ्यन्तपदेनोद्दिश्यहविस्त्याग: श्राद्धम् । -शब्दकल्पद्रुमः। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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