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समुद्रों, जंगलों, पहाड़ों, नगरों, द्वीपों, वेदों, वेदांगों, कालों, महिनों, ऋतुओं और वृक्षोंको भी, उनके अलग नामोंका उच्चारण करके, पानी दिया है। हिन्दुओंके यहाँ भी ऐसा ही होता है । अर्थात् वे नारायण
और रुद्रादि देवोंके साथ नदी समुद्रों आदिको भी देवता मानते हैं। * उनके यहाँ देवताओंका कुछ ठिकाना नहीं है। वे नदी समुद्रों आदिको भी देवता मानते हैं । परन्तु मालूम नहीं कि, त्रिवर्णाचारके कर्ताने इन नद्यादिकोंको देवता समझा है, ऋषि समझा है या पितर समझा हैं । अथवा कुछ भी न समझकर 'नकलमें अकलको दखल नहीं' इस लोकोक्ति पर अमल किया है। कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि, त्रिवर्णाचारके कर्ताने हिन्दूधर्मके इस तर्पणसिद्धान्तको पसंद किया है और उसे जैनियोंमें, जैन तीर्थकरादिकोंके नामादिका लालचरूपी रंग देकर, चलाना चाहा है। परन्तु आखिर मुलम्मा मुलम्मा ही होता है। एक एक दिन असलियत खुलेोविना नहीं रहती।
५-पितरादिकोंका श्राद्ध । जिनसेन त्रिवर्णाचारके चौथे पर्वमें तर्पणकी तरह 'श्राद्ध ' का भी एक विषय दिया है और इसे भी हिन्दूधर्मसे उधारा लेकर रक्खा है। पितरोंका उद्देश्य करके दिया हुआ अन्नादिक पितरोंके पास पहुँच जाता है, ऐसी श्रद्धासे शास्त्रोक्त विधिके साथ जो अन्नादिक दिया ___ * जैसा कि कात्यायन परिशिष्ट सूत्रके निम्न लिखित एक अंशसे प्रगट है:___ "ततस्तर्पयेद्ब्रह्माण पूर्व विष्णुं रुद्रं प्रजापतिं देवाइछंदांसि वेदानुषीन्पुराणाचार्यान्गन्धर्वानितराचार्यान्संवत्सरं सावयवं देवीरप्सरसो देवानुगानागान्सागरान्पर्वतान्सरितो मनुष्यान्यक्षान् रक्षांसि पिशाचान्सुपर्णान् भूतानि पशून्वनस्पतीनोषधीभूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यतामित्योंकार पूर्वम्।"
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