Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 56
________________ हों, स्त्रियाँ हों; अपनी जातिकुलके लंगड़े लूले हों, अंधे हों, विरूप हों, गर्भच्युत हों मित्र हों, शिष्य हों, सुत हों, सेवक हों, पशु हों वृक्ष हों और जो सब जन्मांतरको प्राप्त हो चुके हों। अन्तमें लिखा है कि मैं इन सबको 'स्वधा' शब्द पूर्वक पानी देता हूँ। ये सब तृप्तिको प्राप्त होओ। " अस्मद्गोत्रे च वंशे ये केचन मम हस्तजलस्य वांछां कुर्वति तेभ्यस्तिलोदकेन तृप्यतां नमः ।" . अर्थातू-हमारे गोत्र और वंशमें जो कोई मेरे हाथके पानीकी वांछा करते हों मैं उन सबको तिलोदकसे तृप्त करता हूँ और नमस्कार करता हूँ। “केचिदस्मत्कुले जाता अपुत्रा व्यंतराः सुराः । ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पडीनोदकम् ॥ १३ ॥ ,, अर्थात्-हमारे कुलमेंसे जो कोई पुत्रहीन मनुष्य मर कर व्यंतर जातिके देव हुए हों उन्हें मैं धोती आदि वस्त्रसे निचोडा हुआ पानी देता हूँ, वे उसे ग्रहण करें। तर्पणके बाद धोती निचोडनेका मंत्र है। * इसके बाद 'शरीरके अंगोंपरसे हाथ या वस्त्रसे पानी नहीं पोंछना चाहिए, नहीं तो पुनः स्नान करनेसे शुद्धी होगी' ऐसा विधान करके उसके कारणोंको बतलाते हुए लिखा है कि- . “तिस्रः कोट्योधकोटी च यावद्रोमाणि मानुषे । वसन्ति तावत्तीर्थानि तस्मान्न परिमार्जयेत् ॥ १७ ॥ पिबन्ति शिरसो देवाः पिबन्ति पितरो मुखात् । मध्याश्च यक्षगंधर्वा अधस्तात्सर्वजन्तवः ॥ १८॥ * हिन्दुओंके यहां इससे मिलता जुलता मंत्र इस प्रकार है: "ये केचास्मत्कुले जाता अपुत्र गोत्रजा मृताः। .. ते गहन्तु मया दत्तं वस्त्र निष्पीडनोदकम् ॥" -स्मृतिरत्नाकरः। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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