Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 42
________________ ५५० नोंमें रहनेवाले ऋषि नहीं हैं जो नखसे शिख तक और बाह्याभ्यन्त. रतः सर्वथा अनुकरणीय होते थे। नहीं, ये आजकलके मास्टर साहब हैं जो केवल इसी कामके होते हैं कि उनसे उनकी विद्या सीख ली जाय और उनकी दूसरी बातोंसे कोई संबन्ध न रक्खा जाय । अपने इन गुरुओंकी प्रभुताको, वैभवको, आश्चर्यकारिणी बुद्धि और शक्तिको देखकर चकचौंधा मत जाओ-यह मत समझ बैठो कि ये बाहरसे भीतर तक सब प्रकारसे अनुकरणीय हैं-ज्ञानके समान इनका चरित्र भी निर्मल है। क्योंकि ज्ञान और चारित्र दो चीजें हैं । यह नियम नहीं है कि ज्ञानके साथ चारित्र होता ही है। यह सच है कि इन गुरुओंकी जातिमें भी अनेक पुरुष ऐसे हुए हैं और अब भी हैं जिनका चरित्र बहुत ही ऊँचा और आदरणीय कहा जा सकता है; परन्तु उनपर मुग्ध होकर तुम सारी जातिभरको अपना आदर्श मत मान बैठो। नहीं तो उनके गुणोंके प्राप्त करनेमें तो विलम्ब लगेगा पर अवगुणोंके बोझेसे पहले ही दब जाओगे । यह भी स्मरण रक्खो कि तुम आपको सर्वथा हीन या लघु मत समझो । यद्यपि लघुता या नम्रता प्रगट करना एक सभ्यजनोचित गुण है; परन्तु यह तभी तक गुण है जब तक अभिमान भावको दूर करनेके रूपमें रहता है । पर जिस लघुता ज्ञानसे आत्मा दुर्बल, साहसहीन और अपनी गुप्तशक्तियोंसे अजान हो जाता है-वह कदापि कल्याणकारी नहीं हो सकता है। इस भावको हृदयसे दूर कर देना चाहिए और अपनी अनन्त शक्तियोंपर विश्वास स्थापित करना चाहिए। जिस जर्मनीको ऐहिक उन्नतिके लिए हमने अपना आदर्श मान रक्खा है, जिसके आश्चर्यजनक आविष्कारों और शिल्यचातुर्यके विपुल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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