Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 46
________________ ५५४ बेचारोंको कहाँ मिल सकता था ? हमारे मन्दिरके शास्त्रसभारूपी प्यालेके बाहर जिसका कभी एक बूंद भी न जाता था उसका आज हम उदार होकर धारा प्रवाह कर रहे हैं! उस समय वे अपनेको कृतकृत्य समझने लगते हैं और उसी तरहका आनन्दानुभव करने लगते हैं जिस तरह एक बार नारदजीको हुआ था । एक राजकन्याका स्वयंवर था। उसके रूप पर आप मोहित हो गये । आपने श्रीकृष्णजीसे वर मांगा कि मेरा शरीर सुवर्णमय हो जाय । ऐसा ही हुआ। स्वयंवर मंडपमें आप अपने सोनेके शरीरको देखकर फूले न समाते थे और निश्चय कर बैठे थे कि राजकन्या 'मुझे छोडकर और कहाँ जायगी ? पर दूसरे लोग आपकी ओर देख देखकर अपनी हँसी मुश्किलसे रोक सकते थे । इतनेमें किसी हँसोडने महाराजके आगे दर्पण लाके रख दिया ! नारदजी अपने मुँहको बन्दरकी शकलका देखकर लजा दुःख और ग्लानिके मारे. पागल हो गये । जैनियोंके अपने पण्डितोंके पब्लिक-स्पीचानन्दमें मस्त देखकर ता०........के दैनिक भारतमित्रमें किसी सज्जनने एक लेख रूपी दर्पण उनके आगे रख दिया है। अब वे देखें कि हमारे पब्लिक व्याख्यानोंको जिन पर हम 'बलिहार' हो. रहे हैं लोग कैसा समझते हैं। भारतमित्रके लेखककी यह बात सभीके मानने लायक है कि जैनी लोग अपने व्याख्यानोंके फुहारे अपने मन्दिरोंके ही भीतर छोडा करें तो अच्छा हो । हम लोग व्यर्थ ही क्यों तंग किये जाते हैं हम लोगोंके पास ऐसे व्याख्यानोंके सुननेके लिए समय कहाँ है ? ५ विचित्र हिसाब । .. एक विद्वानने हिसाब लगाया है कि ग्रामों और कस्बोंकी अपेक्षा शहरोंके जैनी, गरीब और मध्यम श्रेणीके लोगोंकी अपेक्षा धनवान् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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