Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 39
________________ ५४७ आखिर इसने मुझे पा लिया ! अब यह मेरे प्राण लिये बिना न रहेगी । अब मेरी इस बेटीकी रक्षा कौन करेगा ? " बेगम अपनी सारी शक्तिको लगाकर किनारेकी ओर दौड़ी और एक मल्लाहको अपनी एक कीमती मुद्रिका देकर उसकी डोंगी में बैठगई । मल्लाहने उसकी इच्छानुसार डोंगीको दूसरी ओर लेजानेके लिए तेज धारमें छोड़ दी ! वायुका वेग पहलेहीसे कुछ अधिक था । इस समय और भी बढ़ गया। गंगा भीषण रूप धारण करने लगी। बातकी बात में एक छाती फाड़नेवाली चीख सुनाई दी । और डोंगी मेंसे दो सुन्दर शरीर उलटकर गंगामैयाकी गोद में जापड़े । असामान्या किनारेपर आ पहुँची थी । इस भयंकर चीखको सुनकर उसका हृदय विदीर्ण होने लगा । वह चिल्लाकर बोली-" अरी निर्दोष बहिन, तूने यह क्या किया जिस पतिके लिए तूने अपने प्राणोंकी परवा न की और प्रसवकालका समय समीप आ चुकनेपर भी समरांगणका साथ न छोड़ा उसी पतिने जब तेरे साथ दगा किया, तब और किसकी सहायता या उपकारकी तू आशा रख सकती थी ? पर बहिन, तेरे अभागी पतिकी दुर्दशा को देखकर मेरे हृदय में जो दुःख हुआ है मेरी इच्छा थी कि मैं तुझे कह सुनाऊँ । परन्तु तूने मेरी इस इच्छाको तृप्त करनेका अवसर ही न दिया । तेरी सहायता करने के लिए, तुझे आश्रय देनेके लिए और तुझे आश्वासन के लिए मैंने घर छोड़ा, द्वार छोड़ा, गाँव गाँव और जंगल जंगल घूमना स्वीकार किया, परन्तु कहीं भी पता नहीं लगा । और आज जब तेरी उदास मुखमुद्रा देखनेका संयोग मिला, तब तू गंगाकी गोद में जा सोई - मैं न तेरे साथ बातचीत कर सकी और न तेरे हृदय में अपना विश्वास स्थापित कर सकी!" सती की आँखोंमेंसे इस समय आँसु - I For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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