Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 27
________________ ५३५ 1 1 1 अजैनोंको जैनधर्म इसी ढंग से समझाया जा सकता है । परन्तु अनेक स्थलों में विशेष करके तत्त्व कर्म गुणस्थानादिके स्वरूपमें भूलें रह गई हैं । कोई कोई भूलें बड़ी ही विलक्षण हैं । ११७ वें पृष्ठमें लिखा है - " इस समय दिगम्बर जैनी उन्माद ” नामसे और श्वेताम्बर ' तप्पा ' नामसे सर्व साधारण में परिचित है । बहुत लोग दिगम्बरी छोटे साधुओं को 'पण्डित' कहते हैं और बड़े साधुओंको ' भट्टारक । " मालूम नहीं किस देशमें और किस भाषा में ये 'उन्माद' और 'तप्पा' शब्द प्रचलित हैं । हमने तो इससे पहले ये शब्द कहीं सुने भी न थे । छोटे और बड़े साधुओंकी पहचान भी खूब कराई गई है । कई लेखोंमें विशेषकरके - भूमिकामें इस सिद्धान्तके पुष्ट करनेकी चेष्टा की गई है कि जैनधर्म यद्यपि वेदोंको प्रामाण्य नहीं मानता है। तथापि पारमार्थिक हिसाब से वह मूलमें वेदानुसरणकारी ही है । जैनधर्मका शरीर जिन उपकरणोंसे बना है वे सब वेदों तथा उपनिष दोंसे लिये गये हैं । जैनधर्म प्राचीन अवश्य है । परन्तु पहले वह कोई दार्शनिक मत नहीं था । उसके अनुयायी साधु उस समय मोक्षसाधकही थे दार्शनिक न थे। इसी लिए महावीर के पहलेका जैन साहित्य नहीं है । यदि जैनधर्म दार्शनिक सम्प्रदाय होता तो जैनमोक्षपन्थियोंके सूत्र वा उपनिषत् ग्रन्थ अवश्य होते । उस समयका जैन साधुसम्प्रदायने तत्त्वविचारसे उदासीन होकर व्रतनियमादि के ऊपर ही अपना साम्प्रदायिक विशेषत्व प्रतिष्ठित रक्खा था, इसका मुख्य प्रमाण उनका उद्भावित किया हुआ स्याद्वाद ' है । यह स्याद्वाद या सप्तभंगी नय जिस सम्प्रदायके द्वारा उद्भावित हुआ है, यह सम्प्रदाय तत्त्वविचार में व्यर्थ कालक्षेप न करेगा, यही अधिक संभव मालूम होता है । कई स्थानोंमें सांख्यदर्शन के साथ जैनधर्मका मिलान किया " 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International ܕ

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