Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 23
________________ ५३१ क्योंकि वहाँसे पुनर्जन्म होता है और जरामरणादि दुःख भोगना पड़ते हैं । अन्तमें वे यह भी कहते हैं कि जगत कारणमें लयप्राप्त हो जाने पर भी मुक्ति नहीं है। क्योंकि उस ( लयप्राप्त अवस्था ) से जलमें डूबे हुए के पुनरुत्थान ( फिरसे ऊपर आ जाने ) के समान पुनरुत्थान होता है । (३, ५४)। पूर्वोक्त सूत्र उन्होंने उसी लयप्राप्त आत्माके सम्बन्धमें कहा है कि वह सबका जाननेवाला और सर्वकर्ता है। उसको यदि तुम ईश्वर कहना चाहो तो ईदृशेश्वर सिद्ध है। परन्तु वह जगत्सृष्टा या विधाता नहीं हो सकता । उक्त सूत्रमें जो 'सर्वकर्ता' शब्द है, उसका अर्थ सर्वशक्तिमान् है , सर्वसृष्टिकारक नहीं। * (अपूर्ण) पुस्तक परिचय । २९. सुरस ग्रंथमाला-श्रीयुक्त शेठ बालचन्द रामचन्द कोठारी, बी. ए. और श्रीयुक्त तात्या नेमिनाथ पांगलने इस मराठी ग्रन्थमालाके निकालनेका प्रारंभ किया है। इसमें सर्वसाधारणोपयोगी सरस और मनोरंजक उपन्यास प्रकाशित होते हैं। स्थायी ग्राहकोंको सब ग्रन्थ आधे मूल्यमें दिये जाते हैं। अब तक इसमें पाँच ग्रन्थ निकल चुके हैं। पतिपत्नीप्रेम और सम्म्राट अशोक ये दो ग्रन्थ हमें समालोचनाके लिए प्राप्त हुए हैं। पहला ग्रन्थ डा० रवीन्द्रनाथ ठाकुरके 'चोखेरवाली ' उपन्यासका अनुवाद है। अनुवाद हमारी प्रकाशित की हुई 'आँखकी किरकिरी'परसे किया गया है। अनुवादक हैं श्रीयुत सेठ बालचन्द रामचन्द कोठारी बी. ए. । रवीन्द्रबाबूके इस उपन्यासकी प्रशंसा करनेकी आवश्यकता नहीं । मनुष्यके आन्तरिक भावोंका चित्र खींचनेमें लेखकने बड़ा ही विलक्षण कौशल दिखलाया है। * स्वर्गीय बावू बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्यायके बंगला लेखका संक्षिप्त अनुवाद। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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