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तीसरा प्रमाण शब्द है । आप्तवाक्योंको शब्द प्रमाण माना है और वेद ही आप्तवाक्य हैं । सांख्यकार कहते हैं कि वेद में ईश्वरका कोई प्रसंग नहीं है, बल्कि वेद में यही कहा है कि सृष्टि प्रकृतिकी क्रिया है, ईश्वरकृत नहीं है (श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य । ५, १२ ) किन्तु जो वेदको पढेंगे वे देखेंगे कि यह बात बिलकुल असंगत हैअर्थात् उन्हें उसमें ईश्वर के प्रसंग मिलेंगे। इस आशंकाका समाधान करने के लिए सांख्यकार कहते हैं कि वेदमें ईश्वरका जो उल्लेख है वह या तो मुक्तात्माओं की प्रशंसा हैं, या सामान्यदेवताकी ( सिद्धस्य ) उपासना | ( मुक्तात्मनः प्रशंसा उपासना सिद्धस्य वा । १, ९५ )
यह दिखला दिया कि ईश्वरके अस्तित्वका कोई प्रमाण नहीं है । अब सांख्यने ईश्वरके अनस्तित्व के सम्बन्धमें जो प्रमाण दिये हैं उनका विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाता है :
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ईश्वर किसे कहते हैं ? जो सृष्टिकर्त्ता और पापपुण्यका फलविधाता हो उसे । जो सृष्टिकर्त्ता है वह मुक्त है या बद्ध ? यदि वह मुक्त है तो उसके भी सृष्टि रचना करने की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? और यदि वह मुक्त नहीं बद्ध है तो फिर उसमें अनन्तज्ञान और अनन्तशक्ति सम्भव नहीं हो सकती। अतएव कोई एक व्यक्ति सृष्टिकर्त्ता हैं यह बात असंभव हैं । ( मुक्तवद्धयोरन्यतराभावान्न तत्सिद्धिः । १, ९३ ) ( उभयथाप्यसत्करत्वम् | १, ९४ )
यह तो हुई सृष्टिकर्तृत्वसम्बन्धी बात । अब पापपुण्यके दण्डविधा - तृत्व सम्बन्धकी बात लीजिए | इस विषय में सांख्यकार कहते हैं कि यदि ईश्वर कर्मफलका विधाता हैं, तो यह अवश्य है कि वह कर्मानुयायी फल देगा। अर्थात् पुण्यकर्मका शुभफल देगा और पापकर्मका अशुभ फल | यदि वह ऐसा न करेगा, अपनी इच्छा के अनुसार फल
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