Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 20
________________ ५२८ सांख्यकार कहते हैं कि, ईश्वर असिद्ध है ( अ०१, सू०९२ )। कोई प्रमाण नहीं है इसीसे असिद्ध है (प्रमाणाभावात् 'नतत्सिद्धिः। ५, १०) सांख्यके मतमें पूर्वकथनानुसार तीन प्रमाण माने गये हैं;-प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। इनमें से प्रत्यक्षकी तो बात ही नहीं है-ईश्वर प्रत्यक्षका विषय ही नहीं माना जाता। किसी वस्तुके साथ यदि अन्य किसी वस्तुका नित्य सम्बन्ध रहता हो, तो एकके देखनेसे दूसरीका अनुमान किया जाता है। परन्तु किसी वस्तु के साथ ईश्वरका कोई नित्य सम्बन्ध नहीं देखा जाता; अतएव अनुमानके द्वारा भी ईश्वर सिद्ध नहीं हो सकता । ( सम्बन्धाभावान्नानुमानम् । ५, ११) यदि इस सूत्रको पाठक अच्छी तरह न समझे हों, तो कुछ और भी अधिक स्पष्टतासे समझानेका यत्न करता हूँ। पर्वतमें धुएँको देखकर तुम सिद्ध करते हो कि वहाँ पर अग्नि है। इस प्रकारका सिद्धान्त तुम क्यों करते हो? इसलिए कि तुमने जहाँ जहाँ पर धुआँ देखा है वहाँ अग्नि भी देखी है अर्थात् अग्निके साथ धुएँका नित्यसंबंध होनेके कारण। __ यदि कोई तुमसे आकर पूछे कि तुम्हारे प्रपितामह (परदादा) के कितने हाथ थे, तो तुम कहोगे कि दो । तुमने तो उनको कभी देखा नहीं फिर कैसे कह दिया कि उनके दो हाथ थे ? तुम कहोगे, मनुष्यमात्रके दो हाथ होते हैं इसलिए । अर्थात् मनुष्यत्वके साथ द्विभुजताका नित्यसंबंध है इसलिए। ___ यह नित्यसम्बन्ध या व्याप्ति ही अनुमानका एक मात्र कारण है। जहाँ यह सम्बन्ध नहीं होता वहाँपर पदार्थान्तरका अनुमान नहीं हो सकता। अब इस प्रकरणमें जगतके किस पदार्थके साथ ईश्वरका नित्य सम्बन्ध है कि जिससे ईश्वरका अनुमान किया जा सके ? सांख्यकार उत्तर देते हैं कि किसीके साथ नहीं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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