Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 18
________________ ५२६ प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इस लक्षणमें दो दोष लगते हैं। एक तो यह कि योगिगण योगबलसे असम्बद्धको भी प्रत्यक्ष कर सकते हैं। आगेके ९०-९१ वें सूत्रोंमें सूत्रकारने इस दोषको अपनीत कर दिया। अब रहा दूसरा दोष यह कि ईश्वरका प्रत्यक्ष नित्य है , इस लिए उसके सम्बन्धमें 'सम्बन्ध' का लक्षण घटित नहीं हो सकता है, सो इसका उत्तर उक्त ९२ वें सूत्रसे सूत्रकार देते हैं कि ईश्वर सिद्ध नहीं है-ईश्वर है, इसका कोई प्रमाण नहीं है । अतएव उसके प्रत्यक्ष सम्बन्धमें व्यवहृत न होनेसे यह लक्षण दुष्ट नहीं हुआ । यहाँ पर भाष्यकार महाशय कहते हैं कि देखो, यह कहा गया है कि 'ईश्वर असिद्ध है ' किन्तु यह तो नहीं कहा गया है कि 'ईश्वर नहीं है'। __ न कहा गया हो, न सही, तथापि इस दर्शनको निरीश्वर कहना होगा। ऐसा शायद ही कोई नास्तिक होगा जो कहता होगा कि ईश्वर नहीं है । जो कहता हो कि इस प्रकारका कोई प्रमाण नहीं है जिससे यह सिद्ध हो सके कि 'ईश्वर है। उसको भी नास्तिक कहना चाहिए। 'जिसके आस्तित्वका प्रमाण नहीं है' और 'जिसके अनस्तित्वका प्रमाण है। ये दो जुदा जुदा बातें हैं । लाल रंगके कौएके अस्तित्वका कोई प्रमाण नहीं है, परन्तु साथ ही उसके अनस्तित्वका भी कोई प्रमाण नहीं है। किन्तु ऐसे चतुष्कोणके अनस्तित्वका प्रमाण है कि जो गोलाकार हो। यह तो निश्चित है कि आप गोलाकार चतुष्कोण नहीं मानेंगे; किन्तु पूछना यह है कि लालरंगका कौआ मानेंगे या नहीं ? जिस तरह उसके अनस्तित्वका प्रमाण नहीं है उसी प्रकार उसके अस्तित्वका भी प्रमाण नहीं है । जहाँ अस्तित्वका प्रमाण नहीं है वहाँ नहीं मानेंगे । अनस्तित्वका प्रमाण नहीं है तो न रहने दो, परन्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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