Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 16
________________ ५२४ हो सकता है, उसी प्रकार प्रकृति से जुदा रहने पर भी पुरुष विकारयुक्त होता है । परन्तु इस प्रकारका संयोग नित्य नहीं होता है - यह स्पष्ट ही दिखलाई देता है, इसलिए इसका उच्छेद हो सकता है । और इस संयोगका उच्छेद होनेसे दुःखके या विकृतिके कारण दूर हो सकते हैं । अतएव इस संयोगकी उच्छित्ति दुःखनिवारणका उपाय है और यही मोक्ष है। यह प्रकृति - पुरुष - संयोगकी उच्छित्ति या मुक्ति विवेकके द्वारा प्राप्त हो सकती है । प्रकृति और पुरुषसम्बन्धी ज्ञानको विवेक कहते हैं । सांख्यप्रवचनकारके मतसे कर्म अर्थात् होम यागादिका अनुष्टान पुरुषार्थ नहीं है। ज्ञान ही पुरुषार्थ है और ज्ञान ही मुक्ति है । सांख्य ईश्वरका अस्तित्व स्वीकार नहीं करता । वह सर्वविद्य सर्वकर्ता पुरुष मानता है, परन्तु इस प्रकार के पुरुपको मानकर भी वह उसे सृष्टिकर्ता नहीं मानता है । सृष्टिको भी वह नहीं मानता। उसके मतसे यह जगत प्राकृतिक क्रियामात्र हैं - यह स्वयं ही बनता बिगडता रहता है। कका कारण ख; खका कारण ग; गका कारण घ; इस तरह कारणपरम्पराका पता लगाते लगाते एक स्थान में अवश्य ही ठहरना पड़ेगा, क्योंकि कारणश्रेणी अनन्त कभी नहीं हो सकती । हम जिस फलको खा रहे हैं, वह अमुक वृक्षमें फला है, वह वृक्ष एक बीजसे उत्पन्न हुआ था, वह बीज अन्य वृक्षके फलसे उत्पन्न हुआ था और वह वृक्ष भी और एक बीजसे उत्पन्न हुआ था । इस तरह अनन्तानुसन्धान करने पर भी एक आदिम बीज अवश्य मानना पड़ेगा। इस तरह जगतमें जो आदिम बीज है, जहाँ कारणानुसन्धान बन्द हो जाता है, सांख्य उसी आदिम कारणको 'मूल प्रकृति ' कहता है । www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only

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