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प्रस्तावना
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कवि परिचय
भट्टारक यशः कीर्ति काष्ठासङ्घ माथुरगच्छ और पुष्करगरण के भट्टारक गुणकीर्ति ( तपश्चरण से जिनका शरीर क्षीण हो गया था) के लघु भ्राता और पट्टधर थे । यह उस समय के सुयोग्य विद्वान् और कवि थे, तथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के अच्छे विद्वान् थे । इन्होंने सं० १४८६ में बिबुध श्रीधर के संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र और अपभ्रंश भाषा का 'सुकमालचरित' ये दोनों ग्रन्थ लिखवाये थे । इन्होंने
मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी कराई थी। ग्वालिर के भ० मंदिर में इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां विराजमान हैं । यह ग्वालियर के शासक तोमर वंशीय राजा डूंगरसिंह के समय में हुए हैं जिसने सं० १४८१ से सं० १५१० तक राज्य किया है । यह जैनधर्म का श्रद्धालु था । इसने उस समय सैकड़ों मूर्तियां ग्वालियर के किले में उत्कीर्ण कराई थी, जिनकी खुदाई का कार्य ३३ वर्ष पर्यन्त चला था । इनके महाकवि रइधू जैसे शिष्य थे । रइधू ने अपने 'सम्मइ जिनचरिउ' नामक ग्रन्थ- प्रशस्ति में यश कीर्ति का निम्न शब्दों में गुरण - गान किया है
"ताहिकमागयतव तवियंगो, रिणचुब्भासिय-पवयरण संगो । भव्व-कमल-संबोह-पयंगो, वंदिवि सिरि जसकित्ति प्रसंगो । तस्स पसाएँ कव्वु पयामि, चिरभवि विहिउ असुर रिगण्णा समि ।।"
भट्टारक यशः कीर्ति को महाकवि स्वयंभू देव का 'हरिवंश पुराण' (रिट्ठेणे मिचरिउ ) जीर्णशीर्ण दशा में प्राप्त हुआ था और जो खंडित भी हो गया था, जिसका उन्होंने ग्वालियर के कुमार नगर के जैन मंदिर में व्याख्यान करने लिए उद्धार किया था और इसमें अपना नाम भी अङ्कित कर दिया था यह कवि रइधू के तो गुरु थे ही, इनकी और इनके शिष्यों की प्रेरणा से कवि रइधू ने अनेक ग्रंथों की रचना है । इनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी है ।
१. तो सीसु सिद्ध गुण कित्तिणासु, तव तावें जासु सरीस खामु । तो बंधत्रु जस मुणि सीसु जाउ, आयरिउ पणासिय दोमु-राउ । - हरिवंशपुराण प्रश० २. "सं० १४८६ वर्षे प्रश्वणिवदि १३ सोमदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूंगरेन्द्रसिंह देव विजयराज्य प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे प्राचार्य श्रीभावसेन देवास्तत्पट्टे श्रीसहस्रको तिदेवास्तत्पट्टे श्री गुणकीर्तिदेवास्तच्छष्येण श्रीयशः कीर्तिदेवेन निजज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं सुकमालचरितं लिखापितं कायस्थ याजन पुत्र थलू लेखनीयं । "
"सं० १४८६ वर्षे प्राषाढ़ वदि ७ गुरुदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूंगरसी (सि) ह राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंधे माथुरान्वये पुष्करगणे प्राचार्य श्री सहस्रकीर्तिदेवास्तत्पट्टे श्राचार्य गुणकीर्ति देवास्तिच्छिष्य श्रीयशः कीर्तिदेवास्तेन निज ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थं इदंभविष्यदत्त पंचमीकथा लिखापितम् ।" ३. तं जसत्तिणिहि उद्धरथिउ, णिए वि सत्तु हरिवंसच्छरिउ ।
- गुरु सिरि-गुण - कित्ति पसाएँ, किउ परिपुण्णु मणहो प्रणुराएँ । सरह सदं (?) सेठि प्राएसें, कुमरि णयरि प्राविउ सविसेसें । गोरमी विसालए, पणियारहे जिणवर चेयालए । सावयजणहो पुरउ वक्खाणिउ, दिदुमिच्छत्तु मोहु प्रवमाणिउ ।
- हरिवंश पुराण प्रशस्ति नरायणा प्रति