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जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह ७६वीं प्रशस्ति 'सुगन्धदशमी कथा' की है जिसके कर्ता कवि नयनानन्द हैं।
प्रस्तुत कृति में दो सन्धियां और २१ कडवक हैं । जिसमें मुनि निन्दा रूप पाप के फल से होने वाली शारीरिक दुर्गन्धता और कुयोनियों में भ्रमण आदि के दुखों तथा सुगन्धदशमी व्रत के अनुष्ठान के परिणाम स्वरूप होने वाली शारीरिक सुन्दरता और उच्च कुल आदि की प्राप्ति का फल दिखलाया गया है। यह कथा कब रची गई इसका कवि ने कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है। प्रस्तुत ग्रंथ की प्रशस्ति पंचायती मंदिर खजूर मस्जिद दिल्ली की अशुद्धि प्रति पर से दी गई है । हाल में इसकी दूसरी प्रति जयपुर के बड़े तेरापंधी मन्दिर के शास्त्र भंडार से देखने को मिली, जो प्रायः शुद्ध है और विक्रम संवत् १५२४ की लिखी हुई है। इससे स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रंथ सं० १५२४ के बाद का लिखा हुआ नहीं है किन्तु पूर्ववर्ती है। और सम्भवतः विक्रम की १५ वीं शताब्दी या इससे भी कुछ पूर्व रची गई हो । कवि खुशालचन्द ने इसका हिंदी पद्यानुवाद भी कर दिया है जो भद्रपद शुक्ला दशमी के दिन शास्त्र सभा में पढ़ा जाता है । कथा रोचक और सरस है।
८०वीं प्रशस्ति 'मुक्तावलि कथा' की है, जिसके कर्ता कोई अज्ञात कवि हैं। ग्रंथ में मुक्तावलि व्रत के विधान और उसके फल की कथा दी गई है। कथा में रचनाकाल भी नहीं दिया है । जिससे उसके संबंध में निश्चयतः कुछ भी नहीं कहा जा सकता। संभव है अन्वेषण करने पर किसी प्रति में कर्ता का नाम भी उपलब्ध हो जाय।
जयपुर के पाटौदीमंदिर के शास्त्रभंडार में 'मुक्तावलि विधान कथा' की एक अपूर्ण प्रति उपलब्ध है' । जो संवत् १५४१ फाल्गुण सुदी ५ की लिखी हुई है। यदि यह कथा वही हो, जिसकी संभावना की गई है, तो इसका रचनाकाल भी विक्रम की १५ वीं शताब्दी होना चाहिए। अधिकांशतः अपभंश की कथाएं १५वीं १६वीं शताब्दी में ही अधिक लिखी गई हैं ।
८१वीं प्रशस्ति 'अनुपेहारास' की है जिसके कर्ता कवि जल्हिग हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में कवि ने, अनित्य अशरण, संसार, एकत्व अन्यत्व, अशुचि, प्रास्त्रव, संवर, निर्जरा, बोधिदुर्लभ और धर्म, इन बारह भावनाओं के स्वरूप को दिखलाते हुए उनके बार-बार चिन्तन करने की प्रेरणा की है। वास्तव में ये भावनाएं देहभोगों के प्रति अरुचि उत्पन्न कराती हुई आत्म-स्वरूप की ओर आकृष्ट करती हैं । इसीलिए इन्हें माता के समान हितकारी बतलाया है । कवि जल्हिग कब हुए, यह रचना पर से ज्ञात नहीं होता। संभवतः इनका समय विक्रम की १४वीं या १५ वीं शताब्दी हो।
८२वीं प्रशस्ति 'वारस अणुवेक्खारास' की है। जिसके कर्ता पं० योगदेव हैं ।
इस ग्रन्थ में भी अनित्यादि बारह भावनाओं का स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है । कवि ने इस ग्रंथ को कुम्भनगर के मुनिसुव्रतनाथ के चैत्यालय में बैठकर बनाया है। इनका समय और गुरुपरम्परा अभी प्रज्ञात है। प्रस्तुत कुम्भनगर कनारा जिले में बसा हुा है। इनकी एक कृति तत्त्वार्थ-सूत्र की टीका 'सुखबोधवृत्ति है । जिसका परिचय जैनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह के प्रथम भाग में दिया गया है। उससे ज्ञात होता है कि कवि राज्य मान्य थे। और राजा भुजबली भीमदेव की राज्य सभा में उन्हें उचित सम्मान मिला हुना था, उक्त राजा भुजबली भीमदेव कनारा जिले में किस प्रदेश के शासक थे और कब तक उन्होंने वहाँ राज्य
१. देखो, राजस्थान के जैन ग्रन्थभंडारों की सूची चतुर्थभाग पृ० २३६ २. देखो, जनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० १ प्रस्तावना पृ०४७ ।