Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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११३ णाय कुमार चरिउ (नाग कुमार चरित)
( महा कवि पुष्पदन्त )
प्रादिभाग:
पण वेष्पिणु भावें पंच गुरु कलिमलवज्जिउ गुणभरिउ । माहासमि सुय पंचमिहे फलु गायकुमार चारुचरिउ
॥ ध्रुवकं
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जंनग्रन्थ- प्रशस्तिसंग्रह
दुविहालंकारों विप्रंति,
लीला कोमलई पयाई दिति ।
महकव्वणिहेलणि संचरंति, बहु हाव भाव विभम धरंति । सुपसत्यें प्रत्थे दिहि करंति, सव्बई रिगष्णाण संभरंति । णीसेस देसभा स उ चवंति, लक्खणइं विसिटुदं दक्खवंति । अरुंद छंद मग्गेण जंति, पाणेहि मि दह पाणाई लेंति । वह मि रसेहि संचिज्जमाण, विग्गह तएण णिरु सोहमारण । चउदह पुब्बिल्ल दुवालसंगि, जिरणवयण विणिगय सत्तभंगि । वायरण वित्ति पायडियणाम, परियउ मह देवि मणोहिराम ।
पत्ता
सिर कण्हराय करयलि णिहिय असिजलवाहिणि
धवल हरसिहरि हममेह उलि पविउल मण्डखेड
मुद्धा सव भट्ट, कासव रिसिगोतें विसाल ऋितु ।
हो मंदिर णिवसंत संतु, महिमानमेरु गुणगरणमहंतु । पत्थर महियणवियसीसएण, विणएग महोवहि सीसएण । दूरुज्मिय बुक्किण मोहरोण गुणधम् प्रवर वि सोहणे
दुगायरि ।
णयरि ॥१
भोपुप्फयंत पडिवण्णपरणय, मुद्धाई सवभट्ट तणय |
तु बाई सरिदेवीरिणकेउ,
तु म्हं पुष्ण णिबंध हेउ । तुहुं भव्वजीव पंकरुह भाणु, पई धरणु मणि मण्णिउ तिरण समाणु । गुणवंत भत्तु तुहुं विणयगम्मु, उज्झाय पयासहि परम धम्मु,
घत्ता
श्रलग्गिड भावें दिणिजि दिरणे नियमरण पंकइथिरु थविउ । कइ कव्वपिसल्लउ जस धवलु सिसु जुयलेण पविण्णविउ ॥२
भरणु भणु सिरिपंचमिफलु गहीरु, प्रायणाहि णायकुमारवीरु । ता वल्लहराय महंतण, कलि विल सिय दुरिय कयंतएण । कोंडिगोत्त ह ससहरेण, दालिद्द कंद कंदल हरेरण ।
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[ १४१
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इय णायकुमार चारुचरिए गण्णामंकिए महाकद्द पुप्फयंत विरइए महाकव्वे जयंधर विवाह कल्लाजवण्णणो रणाम पढमो परिच्छेउ समत्तो ॥
अंतिमभागः
गोत्तम गणहर एवें सिट्ठउ,
सूरि परंपराए उब इट्ठउ । णायकुमार चरितु पयासिउ, इय सिरि पंचमिफलु मई भासिउ । सो गंदउ जो पढइ पढाव,
सो गंदउ जो लिइ लिहावइ । सो गंदउ जो विवरि विदावर,
सी गंदउ जो भावें भावइ । रगंदउ सम्मइ सामरण सम्मइ, णंदउ पय सुहु गंदउ गरवइ । चितउचित वरिसउ पाउसु गंदउ गण्णु होउ दीहाउसु । roup संभवंतु सुपवित्तई, णिम्मल दंसरण गारण चरित्तरं ।

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