Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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वीरसेवा मन्दिर प्रन्यमाला
घत्ता
जिण एकहुं णंदरण कइ करिण, तहो धम्मणिमित्त हो दिढ सम्मत हो सासयसुह तह कारण हो, दामोयरु सुजस णिहाण दिछु। वण्णामि मगहाहिउ भव्वयाहं पिउभध कब्ब रयणायरहो।। तिण विरपउ णेमीसरचरित्त, अन्तिम भाग
समलह कवि साणंद चित्त। इय णेमिणाहचरिए महामुणि कमल भद्द पचक्से
जो पठह पठावर लिहइवि देश, महाकइ कणि दामोयर विरइए पंडिय रामयंदमाएसिए
सो मोक्ख महा पुरिपड सूरेछ । महाकन्वे मल्ह सभ गग्गएव प्रायण्णिए मिणिब्वाण
पत्ताममणं पंचमो परिच्छेमो सम्मतो ॥१४॥
पगि सन्ति समिच्छमों पण सुबह छमो मनुसम्म पयडड बारह सयाई सत्तासिया, विक्कम रायहो कालहं। पयारह पट्ट समुबरण गरबा देवपालहं॥ तहं तणइ मंति सुर गुरु सवाण,
समलगपुरि पिठुमो चित्तिगविठुमो वीरणाह विजण धम्मेउ धम्मु गुण गण णिहाए ।
तिम ॥१४॥ गुणहदहं पट्ट समुदरण,
देसहं रायहं पुरवरहं सति सपलदि भन्मयण। । मुणि सूरिसेण काल-मल हरण । पढ़ा सुणइं जो एक्कमण तहो होउ संति सम्बपरिण ॥ तहं सण उ सीस मणि कमलभद्द,
पउविहि संवहं सुह-संति करण, भन्वयणपिए जस मण मणंदु।
ऐमीसरचरिउ बहु दुख-हरण । तहिं बरिणवर एक पसम्पचित्त,
दुज्जीह जि किरिण बय गुण ईलेहि, गग्गेउ णाम भव्वयण-मित्तु ।
भविभाव सिद्धि संभवउ तेहि । मेडत्तय वंस उज्वाण करण,
विसहर जिम जे पर छिद्दरिणयहि, जे हीण दीण-दुह-रोय-हरणु ।
ते कम्म कलंकिय दु-भवहिं । मल्हह दणु गुण गण पवित्त,
जे सुवण सुण हि धरि साहिलासु, तेणि भणि उ दल्ह विरयहिचरितु ।
ते लहहिं सग्गि सुहमइ णिवासु । मई सलखएपरि णि वसतएण,
पोसियह सप्पुषिय दुटुएण, किउ भन्यु कव्व गुरु प्रायरेण ।
परिणबह होइ वि सुतखणेण । पिहिमी घर एंदरण गयरिणचंदु,
दुज्जण जं किज्जह विणय संति, उवएस करइ महु. रामयंदु ।
तं तहं गुणस्स तह होउ संति । जस एवहं णंदण जस णिहाणु,
सं०१५८२, जयपुर शास्त्र भण्डार वच्छल्ल उपइ मह एउ जाण ।
और टोडारायसिंह राजस्थान इस अन्य की प्रति क्षुल्लक सिद्धिसागरजी मोर पं० कस्तूरचन्द जी शास्त्री एम. ए. के सौजन्य से प्राप्त ।

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