Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह
तो सिद्धसेण सुसमंतभद्द,
जो वजोव्वरणे दिवसहिं चडियउ, प्रकलंकदेव सुमजल समुद्द।
अमर विमाणहो णं सुरु पडियउ । जयएव सयंभु बिसालचित्त,
करणयवष्णु प्राइमरण हरगत्तउ, वाएसरि धरु सिरि पुप्फयंतु।
जसु विजवालु णराहिउ रत्तउ । पत्ता
धम्म महातरु सिंचिय अप्पुणु, इस हियए सरंतहो विणउ करत हो महु संजायउ जंजि
जो विजवालहो णं मुहदप्पणु । फलु ।
जो अरि णिहणइ दुस्सह नीलई, गम्हा सुह भरियउ दुह परिहरियउ पयडमि वंछिउ पत्थि
जसु मणुरंजिउ कुंजर कीलई ।
छलु ॥२ बंधव इट्ट मित्त जण रोहणु, xxxxx रिणव भूवालहो जो मणु मोहणु। इय करकंड महाचरिए मुणिकणयामर विरइए भव्वयण
दीणाणाहहो जो दुह-मंजण, कणा वयंसे पंच कल्लाणविहारण कप्पतरु फुल संपत्ते
कण्णगरिंद हो आसयरंजणु । करकंड जम्मोप्पत्ति वण्णणो णाम पढमो परिच्छेउ
जो बोलतउ णिव संखोहइ, समत्तो ॥ संधि १
जो ववहारई गरवइ मोइइ । अंतिमभाग:
जो गुरु संगरि अइसय धीरउ, चिरु दियवर वसुप्पण्ण एण,
जो जण पयड ण कायर हीरउ । चंदारिसि गोत्तें विमलएण।
जो चामीयर कंकरण वरिसणु, वइराइं हुयइं दियंबरेण,
जो वंदीयण सहलउ करिसणु । सुपसिद्धणाम कणयामरेण ।
जो जिण पाय सरोयहूं महुयरु, बुह मंगलएव हो सीसएण,
जो सव्वंगु वि णयणहं सुदरु । उप्याइय जण मण तोसएण।
जो कामणिहिं मणम्मि ण मुच्चइ, प्रासाइय रणयरि संपत्तएण,
जो जण सील तरंगिरिण उच्चइ । जिण चरण सरोरुह भत्तएण ।
कित्ति भमंतिय कह व ण थक्कइ, प्रच्छं तई तहिं मई चरिउ एहु,
जसु गुण लिती सरसइ संकइ । धर पयडिउ भवियरिण विणणेहु ।
तहो सुय प्राहलु रल्हो राहुल, भई सत्थ विहीणइं भडिउ किपि,
मुणि करिणयामर पय उव्वाहुल । सोहेविणु पयडउ विबुह तं पि ।
पत्तापरकज्ज करण उज्जुय मणाहं.
तहो अणुराएं इउ चरिउ मइंजणवई पयडिउ मणहरउ । मप्पाणउ पयडिउ सज्जाणहं।
ते बंधव पुत्त कलत्तसहु चिरु णंदहु जा रवि-ससि कर जोडिवि मग्गिउ इउ करंतु,
हरई ॥२६ महो दीणहो ते सयलु वि खमंतु ।
इय करकंड महा राय चरिए मुणि कणयामर विरइए पत्ताजो पढइ सुणइ मण चितवइ जणवाएं पवडउ इउ चरिउ। भव्ययण कण्णा वयंसे पंचकल्लाण कप्पतरु फलसंपत्ते करकंड सो गरु भुवणही मंडणउ बहह सकित्तण गुण भरिउ ॥२८ सव्वत्थ सिद्धिलाहोणाम दहमो परिच्छेउ समत्तो॥१०

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