Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 317
________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [ १२९ णिव भोयमंति मंतण वियह, कीरइ जाणे विणु मरणयजम्मु, लक्खरणों जे? भायर गुणड्ड। सहलउ पयडेवि अहिंसधम्मु ।। कमलसिरि जाय तहो तरिणय भज्ज संसार प्रसारउ मुणहि एउ, पइवय-वयधारिणि पिय सलज्ज । सारत्तण बुद्धिहि तच्च हेउ । तहिउ भरि पुत्तउ (म) तिण्णि केय, उक्तंचजि णवणिहि रयणइंतिण्ण जेम । 'बुद्धेः फलं तत्त्व विचारणं च, पढमउ मण णंदणु णंदणक्खु, देहस्य सारं व्रत धारणं च । सोणिग्गु बीउ सघवइ दक्खु । मर्थस्य सारं किल पात्रदानं, लहुभाइग लूणि व कज्जि दस्थ, वाचाफलं प्रीति करं नराणां ।' जिण जत्त पवित्त ण वित्त सत्यु । रयणोहें कि कर जंपिएण, बहु विह विहाण उज्जावणासु, किं वृद्धिएं तच्च अजंपिएण। कइहल्ल कवित्त पसंसणासु । जिण मल्लचरित्त णामकियासु, इउ सुणिवि मज्झ पोसेहि चित्तु, करि कव्वु पासणाहहो चरित्तु । सुम तिलयताय जस पूरियासु । ते णिसुणबि कव्वहं तणउणाभु, अट्टविह पुज्जसुहदाणयासु, बुहु प्रासुवालु हुउ जो सधामु । जो भाइ जेठ्ठ उवसमधरासु । खणु इक्क विलंबिवि भणई तासु, घत्ता किं कुणमि कव्व संघाहिवासु । गुणियणहं गुणायरु मंतणि कुलगुरु जिण गिहतुंग घत्ता विसालउ । हउँ मुक्ख णिरक्खरु प्रमुणिय सक्खरु चिरु महकइ कह कारावण तप्परु संधाहिउ गुरुदाणेणं मयपालउ ॥४॥ सोहणु। तहो रामाणामें रामलच्छि, पावमि किरणोहें रविससि बोहें खज्जोवय किं बोहणु ॥५॥ सुरवइ सईव कुल कमललच्छि । १०२ सांतिनाह चरिउ (शांतिनाथ चरित्र) सुउ गुण संघट्टवघाट मुक्खु, रिणव पयरु पियक्खर सयल बक्खु । कवि ठाकुर रचना-काल १६५२ इक्कहिं दिणि जिणहरि ठतएण, पादिभागःजिणसत्थतच्च पयडं तएण । प्रति अनुपम अंगु जित्त अनंगु, घाटेम्मताएं एह संतएण? सांति सदा जगि सांतियरो। दह लक्खण धम्मासत्तएण। रवि जिम कमलाई भवि जन भाई जिणजत्त-पट्ट कयायरेण, तह गुणकित्ति उछाह करो ॥१॥ सयत्त रयणा रयणायरेण । लोणासिंह भाइ णिव दुल्लहेण, बोलिज्जा रामावल्लहेण । जिनगुण चरित्त उदित उग्गत रवि, महो पंडिय लक्खण सुयगुलंग, जगि भवि कम्मल केवलं । गुलराड वंसि धयवड पहंग । बोहति भवि-समूह सरमंडलि किं धम्म प्रहघणु णिग्गुणेण, स्यणोहें बुह णिब फग्गुण । दोस म वहति प्रति प्रलं ॥२॥ दुवई

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