Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
View full book text
________________
घत्ता
यह पुरा पगड जगि जसु मईय मानिसालोय महि मंडलीय । गुरुयण सुभत्त गोविंददास, विषम्म बुद्धि जगि धम्मदास वह वायणिपुर लोबिंद, मंद जिण सासरा जगि जिगिदु । चंदप्पहु जिनमंदिर विसाल, दहु पाति मंडल सामिसाल । दहु जातिवाद वह्मचारि,
द पंडित सावय सुधारि ।
राजा सुकवत तहपुतयुक्त, Time विनोयकांता कलत्त । कीलति विलासरिंग रम बाल, गायंति धवल मंगल विसाल । बासी सुमेध रुतिरुति पमाणि सत्त ईति जगति मा करहु नाणि । दुरभिक्ष पणासउ चोर-मारि, मा होस पीडा रोग भारि । जिरा धम्म चक्क सासरण सरंति, गयणय सह जिम ससि सोह दिति । जिण धम्म-णाण केवल रवीय,
अनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
तह भट्ट-कम्भ-ल-विलयकीय
एत मांग जिण संतिण ह,
महु किज्जहु विज्जहु जद्द बोहि-लाह ||५||
कवि कला कवितणा पयडथ कियउ
गुण चिर किय कम्म पणासणे ।
दुग्गम जो कम्म कये किय सुगमा मुझे ठकुर पसम्न जिन सासले ॥ ६०॥
दुबई
संचार कवित्त पण जग मत्ताकल विदय ण कियत सम लोह लालच मय मा मणिदियं ॥ ६१ इति श्री सांतिनाथचरित्रे भाचार्य विशालकीर्ति शिष्य ठाकुर विरचिते बोशांतिनाथ साख-विम्यान कार पंचम संधि समत्तं संपूर्ण
म० कीर्ति भंडार, मजमेर
१०३ मल्लिरगाह कव्य ( मल्लिनाथ काव्य ) ( जयमित्रहल )
प्रादिभाग
( प्रथम तीन पत्र न होने से नहीं दिया गया ।) अन्तिम भागः
मुखि पचंद पट्ट सुपहावरा,
पठमरणंदि गुरु विरियत पावस
घता
परि परि जरा महब
धवल मंगलुच्छव गाइज्जहु ।
पंच सद्दराय हरिसु मुण्णइ, तुगिन्छ र दाइ ? चविह संधु महग्धिम पावउ, बुहवरा जा बट्टठ धणु रायत । चिरु णंदहु कइ हल्लइ गंदण, ग्राहसाहु साहसु घरि वंदरण । वच्छउ बाह्यसाहु कुल सारउ, तुंबर रतराउ सज्जण महारत । गहू गहि प्रसंग संदण, होउ चिराउ कलुस रिकंद । मस्ति-परित जेण वित्पारित, हाविवि गुरिणयरिणवित्यारित । ते दह जे लिहहि लिहावहि, मरिणमारणंद जि पढहि पढावहि । से बहु ने नियमणि भावहि, सत्य-पसत्य वि जे जण दावहि ।
१११
चिरांद देसु पुहमिणरेसु, जिन सासवच्छ धार ।
महु वयण सुहावउ गय परतावउ,
कुरण चित्त संतोसुरणा ॥ २० ॥ इय मल्लिणाह कव्वं रयणत्तय रयण कुहलु महग्यं । जय मित्तल करणा
X
भगम्यमाणा वि गिम्मियं भव्यं ॥ X X इति सिरि जयमित्तहल्ल करणा रहवं मल्लिगाह कव्यं समतं ॥
( अन्तिम पत्र नहीं)
आमेर भंडार

Page Navigation
1 ... 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371