Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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१३८ ]
नर नारिहि विग्ध अवहरे, जो जं मग्गइ तहो तंजि देइ । निव्वाह जो निय सिवि भरेण, सुपुन्नवंतु किं वित्थरेण ।
उववास करइ जो सत्तसट्ठि, उज्जमरिंग तो सुहितुट्ठि पुट्ठि ।
जइ भज्जइ अंतरि विग्धु होइ, तहु सद्दहाणि फलु तं जि तोइ ।
पत्ता
धत्ता
हो कि बहुवाया वित्यरेण, एक्कवि चित्ति महत्तरिण । भरणुमोएं ताहि तिहुं संपन्न गुणं तरि ॥१०॥
वीर सेवामन्दिरन्थमाला
भरि उरि प्रइरायइ दीहरच्छि धरणयत्तहो गेहिरिण धणयल च्छि । उज्जमियताएं चिरु संजुष्ण भाविय धरणमित्तं तहिं सुएण । तह कित्ति सेण नामुज्जयाइ, अणुमोइय वज्जोयर सुनाइ | तहो फलिण ताए तिण्णमि जरगाई उ थइ भवि सिवलोयहो गयाइं । पहिलइ घणयत्त हो घणयदित्ति, इयर बिन्नि वि धरणमित्तु कित्ति । विज्rs भवि पंकयसिरि सरू सुउ भविसयत्तु भविसारण रूम । तिय लिंगु हणि वि तिन्निमि सुतेय
पहचूल रयरण चूलाइ देव । तर यह भविसत्तु वि करणय तेज हुउ दहमई तई जि विमारिण देउ ।
चउथ भवि सुव पंचमि फलेण निड्डु कम्मु झारणानलेण ।
निसुत पढतहं परिचितंतहं प्रप्प हिय । धणवालि तेरा पंचमि पंच पयार किय | ११|
इय भविसयत्त कहाए पर्याडय धम्मत्य काम मोक्खनाए गृहषणवाल कयाए पंचमि फल वण्णगाए कमलसिरि भविसदत्त भविसागुरूव मोक्स गमणोणाम बावीसमो संघी परिच्छेमो सम्मत्तो ।
१११ महापुराण
महाकवि पुष्पदन्त
प्रादिभाग—
सिद्धिबहू मरणरंज
परमणिरंजण भुवरण कमल सरणेसर ।
विवि विग्धविणासर रिगकवमसासरण रिसहणाहु परमेसरु ॥ •
सुपरिक्खिय रक्खिय भूय तण, पंचसय घरगुण्य दिव्वतरण । पयडिय सासण पयणयर वहं, परसमय भरिणय दुण्णयर वहं । सुहसीलगुणोह णिवास हरं, देविद थुयं दिव्वास हरं । जुइ गिज्जय मंदर मेहलयं, पवि मुकक हार मणि मेहलयं । सोहंता सोयरमिय विवरं, उब्वासिय बहुणारय विवरं । सुरणाह किरीट पट्टि पर्य, भइ पर पसाय पट्टि पयं । णवतररिण समप्पहभावलयं, रिगर दुस्सह दुम्मण भावलयं । हरि मुक्क कुसुम चित्तलियणहं, प्ररुहंत मरणंत जसं प्रणहं । सीहासरण छत्त राय सहियं, उद्धरिय परं स किवं सहियं ।
दुदुहि सरपूरिय भुवण हरं,
बंधू फुल्लसं हिरणहरं । पुरुए व जिरगं जिय कामरणं, दूरुज्झिय जम्म-जरा-मरणं । विरयं वरयं रिणय मोह रणं, उद्धय भीम णिय मोह-रयं । पणमामि रविं केवल किरणं, मत्ता समयं मरियं किरणं ।
घत्ता
अवर वि पणविवि सम्मई बिरिगहय दुम्महं कोन पान
विवस 1

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