Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
View full book text
________________
जैनथ-प्रशस्तिसंग्रह
[७६ इहु तुम्ह पसाएं कमि कम्यु,
सिरिराम-शिवाण-मको थाम एकादसमो संधि परिच्छेनो हडं मइ-विहीणु सोहेहु सन्बु॥
समत्तो ॥३॥ जसु मह इह जोत्तिय सो पुणु तेत्तिय पपडड दोसुण अस्थि इह प्रति मामेर भंडार, लिपि सं० १५५१ णिय घणु अणुसारें सह परिवार ववसाउवि सो करउ तिहा ॥५ (स. १९४८ की लिखित नया मन्दिर धर्मपुराकी
x x x अपूर्ण प्रतिसे संशोधित ) इप बनहा-पुराणे बुहयणविदेहिं जन-सम्माणे
३६-मेहेसर चरिउ सिरिडिय-रहधू-विरहए पाइय-बंधेण अस्थि विहि-सहिए
(मेघेश्वर चरित) कवि रइधू सिरि हरिसोहु साहु-कंठ-कंठाहरणे उहय-लोय-सुह-सिद्धि
आदिभागकरणे वैस-
विस-रावण उप्पत्ति-वाणणो णाम पढमो संधि- सिरि रिसह जिणेदह थुषसय इंदर भवतम चंदहु गयहरहु । परिच्छेभो समत्तो॥
पय-जयतु गवेप्पिणु चित्ति मिहणेपिणु चरित भणमि मेहेसरह वरम भाग:
जय रिसहवाह भव-तिमिर-सूर, भन्वहं गुण-शंदउ किउ सुकम्मु,
जय सासिय तासिब कुमइ दूर । अरु णंदड जिणवर-णि धम्मु ।
जय करय हरण गयहरि अपाव, राउ वि णंदर सुहि पब समानु,
जय ति-जय-सुहंकर सुदभाव । गंदउ गोवग्गिरि पचलु ठाणु ॥
जय तियस-मन-मणि-चिट्ट-पाय, सावय जणु यंदउ धम्म-जीसु,
जय माह जिणेसर बीवराय । जियवाणी भाषण्णण पवीण।
जय हिम्मत केवल वाण बाह, देसु वि गिरवड सुहि-बसेड,
जय भठवह दोस-विगय प्रवाह। घरि घरि भरिचज्जड बाइदेउ ।
जय भासिय तच्चं स्वसार, यंदड पुणु हरसीसाहु एत्यु,
जय जगणोवहि शिरु पत्त पार । जिंभाविड चेयय-गुण-पयत्थु ।
जय बाएसरि बह हिम-गिरिंद, सई अंगिमंतु जसु फरह चित्ति,
जय परुह निरामय महिपाणिंद ।। कलिकाल-धरिय जिं माण सत्ति ॥
जह निहय पमाय भयंत संत, सिरि रामचरितु वि जेण पहु,
जय मुत्ति-रमविनंजय-सुकंत । काराविउ सब्वहं जणिय णेहु ।
जय धम्मामय ससि सुजस सोह, तहु णंदणु थामें करमसीहु,
जय भग्वहं दुग्गह-पह-निरोह ॥ मिच्छत्त महागय-दलण-सीहु ॥
पुलु सिरि वीर जिणेंदु पणविवि भत्तिए सुबड । सो पुणु गंदउ जिया-चलण-भत्त,
सम्मासणु सारु जासु तित्त्थे मह जउ ॥१॥ जो राय महायणि मानु पषु ।
साय-बाय-मुहकमल-इसंती, सिरि पोमावइ परवाल वंसु,
बेपमाय-यणहिं पेच्छंती। यंदउ हरिसिंघु सबवी मासु संसु॥
पवयण प्रत्य भणह गिरि कोमल, वाहोल माहणसिंह चिरु गंदड
याणा-सा दसव-पह-चिम्मन । इह रइधू कहतीयड विधरा ।
बेउवमोय कराया समु संकिङ, मोलिक्क समाउ कल गुण जावड
नासा बंस सुचरितु परिट्ठिठ । संदड महियति सोवि परा॥1॥
रेहा विग्गह वह गवदति, इस बबहाद-पुराणे बुहयण-विदेहिं बद-सम्माये
दे गय उरह सहहि उरत्यति । पंडिय-महा-विरहए पाहय-घेण प्रत्व-विहि-सहिए वापरयंगु उयह बिल दुग्गम, रिसीह-साह-कंठ-कंठाहरणे उहयसोय-सुह-सिदिकरणे
याहि प्रत्य गंभीर मनोरमु ।

Page Navigation
1 ... 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371