Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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२०
वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला
विज्जाणंदिय दंसण साहारण भणिया।
जिरण वयण कमल रहदिव्य वाणि, पंडिय सोहि पयासह कोइल पंचमिया ॥
पणमामि जगत्तय पुज्ज जारिण। इति श्री नरेंद्रकीति शिप्प ब्रह्म साधारण कृत कोकिला णिग्गंथ सवरण णिय मरिण धरे वि पंचमी कथा समाप्तः ।।
पहचंद भडार हो थुइ करे वि ।
दुद्धारसि कह फलु सावयाह, ६१ मउडसत्तमी कहा (मुकुट सप्तमी कथा)
जह गोयम भासिउ सेणियाह । ब्रह्म साधारण
तह भासमि जइ हउं मंद बुद्धि, आदिभाग:
सर सइहि पसाएं कव्व सुद्धि । दसण गुणसार हो केवलधार हो तिहुवण कंज दिणेसर हो। अन्तिम भाग :कलिमल णिण्णासहो धम्म पयास हो पणविवि वीर
अण्णुवि जो इय विहि पालेसइ, जिगणेसर हो ।
गरु तिय सो सुरलोय गमेसइ । जिण वयणुभव सरसइ पवित्त,
जिणवर दंसण मूल गुणायर, भुवणत्तय सण सद्ददित्त ।
पोमणं हरिभूसरण भायर । सिरि कुदकुद गणि रयण कित्त,
सोसु णरिंदकित्ति भवतारण, पहसोम पोमणंदी सुवित्ति ।
विज्जाणंदि बंभ साहारण । हरिभूसरण सीसु गरिंद कित्ति,
पयडिय एह कहा जणमणहर, विज्जाणंदिय दंसणधरित्ति।
णंदउ ताम जाम रवि ससहर । वंदे वि पयासमि सुह-णिहाण,
घत्तापुव्युत्त मउडसत्तमि विहाणु।
जे पढहि पढावहि भब्वयण णियमणि णिक्चउ भावहिं। अन्तिमभाग:
ते बंभ सहारण वय फलेण, अमर लोय-सुहु पावहिं ।।५।।
इति गरेंद्रकीति शिष्य ब्रह्मसाधारणकृत अण्णाज पाले सहि वय-विहाणु,
क्षीरद्वादशी कथा समाप्तः । ते पावसहि अमरत्न ठाणु । पत्ता
६३ रविवय कहा (रविव्रत कथा) जे किरीड सनमि विहि सह मंगल मिह पालहि भवसरि
ब्रह्म साधारण
तारण । प्रादिभाग:ते णरिदकित्ती घर खयर पुरंदर होति बंभसाहारण ___ केवल सिरि सारहो गुणगणधारहो कम्मकलंक वियारहो इति श्री नरेंद कीति शिष्य धारण कृत मुकुट
उबसग्ग णिवारहो रायसुयर सारहो पणविवि पास सप्तमी कथा समाप्तम् ।
भडारहो ॥१॥
वंदि वि परमेसरु वड्डमाणु, ९२ दुद्धारसि कहा (दुग्ध द्वादशी कथा)
जसु तित्थे धम्म पवट्टमाणु। ब्रह्म साधारण
सुर असुर मंसिय परम वाणि, मादिभाग:
पणविवि गोयम गणि दिव्व णाणि । जिण सिद्ध भडारहो तिहुमण सारहो पायरियहो पुए जिण समय मूल सिरि कुदकुदि,
उज्झयहो। पहचंद मुणीसर पोमणंदि। वंदे वि मुणिंद हो कुवलयचंद हो दुदारसि पयडमि हरिभूसण सीस गरिद्रकित्ति,
गुरु चरण मंसि वि पयड कित्ति ।
जणहो॥१॥

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