Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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११८
छक्कम्म पवित्ति सुकच्छरेण, जिरगहाण - विहाण सुरेसरेण । अच्छर पिय पेम सुकंतरण, परिपालिय वयविहिसंत ए । सव्वय बुह दिउपाल ए. राहबहु पउत्तु दयालएर ।
घता
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इय सिरि प्रजियणाह तिस्थयर देव महापुराणे धम्मत्थ-काम-मोक्ख-चउपयत्थ पहाणे सुकइणसिरि विजयसिंह बुह विरइए महाभव्व कामराय सुय सिरिदेवपाल विबुह सिरसेहरोमिए दायार गुणाग- कित्तणं पुणो मगहहो पंडिय वर राहव सियजिय राहव नागा चरियइ देसाहिब वण्णणं णाम पढमो संघी परिछेश्रो समत्तो ॥ सुयह मइ ।
धत्ता
संधि ॥ १ ॥ पर भजिय जिस पण य सुरेसहु गायष्णिय कह अन्तिम भाग :महिलए ||२||
पण महु मणि वद्ध, सह
तं सवजह केरउ गाढ गाहु । पर सुकइ विवज्जिय समइ अज्जु,
दुग्धडु तं जायउहय अवज्जु । इय चितं जाकिर चित्तु रोह, ता बृह वरु राहउ उल्ल एइ । एत्यत्थि समायउ कइ पसिद्ध, दुम्बुद्धि सिद्धिहि कर्याणि सिद्ध । प्रत्तावयदेसंह गलिय गब्बु, परि सेसिय दुज्जसदव्व ण्सवु । सिर मेरुकिति मेरुहि पुरोह, सं करमसीह गरवइ घरेह । जो पोमावइ पुरवाड बंसे, उपणु बिसुद्धायार संसे ।
सर दिल्हण वर तउ, रायमइ जगेरिय संपमूउ । बुह बोहु मच्छर पुण्णलीहु, श्रहिहाणें पंडित विजयसीहु । त पुण्णाणिल पेरियउ भाउ, सोभाणिज्जइ दइ विजय वाउ । तउ पउर मणोरह पुण्णहेउ, इय प्राणिवि तें पहिउताउ ।
वरसेवामन्दिर प्रन्थमाला
तह प्राणयणत्थहु घाट मक्खु,
घण पणय विजय प्रायार दक्खु ।
होकर गुण गुंदल हय-दुम्मइ-मल म्हत्तउ सुरण चित्तु धरि ॥ ३
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सो पादावि तं पुरु विजय विउस धरु, वाउव घोसह विणउकरि ।
ग्रह प्रजिया रुह पय पोमभसलु, खंडेलवाल कुल सरसि कमलु । चदह विज्जा वित्थर कुसलु, म्मिल यि जस पड पिहिय कुलु । पंडियउ कउडि पंडिय पहाए, उभय पयत्थि पत्तदा । तहु दर दुम्मइ पंकहारि, छावसिय कम्म पवित्तियारि । दुहामलवय विहिचरणसीलु, दुच्चरण दुमुप्पाडर्णाहि पीलु । पडिउ छीतु सुपसिद्धणामु,
गंदर तहु सज्जरगउल सकामु ।
एपारस पडिमा गुण रसालु, जिण वयण अमिय सायण तिसालु 13 खेत्ता पंडिउ बुह लोयमित्तु,
तहु सूर सुगोत्तम प्रोम मित्तु । सुपहाणउ पंडिउ कामराउ, मुणियण प्रप्पिय सुद्धण्ण चाउ । कमला पणइणि भारत भाउ,
सद्धम्म परिग्गहु हिय पाउ । तहु तिणि सुरगंदण पुण्ण मुत्ति, जिरणदासु जेटू, चिय धम्म जुत्ति ।
धत्ता
जो यि कुल मंडरणु दुज्जस खंड कप भुयह मित्त तर । दुम्बरणि विरतउ णिम्मल चित्तउ महि पर्याय कित तणु ॥३०॥

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