Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 299
________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंगह [१११ पावइ चारुसो नरु परमसुहो, जो पढ़इ अणुवेहारासु, ए प्रण वेहा जिणभणिय, णाणी बोलहि साहु । सोतरु फेडइ पाव पासु, समावासु पावइ सुह-निलउं ॥१५ ते तावज्जिहि जीदतुई, जइ चाहहि सिव लाहु ।।४७ जइ मुणिउ नकव्वबंधु, तहं विपयासिउ छंडु । ८४ अणुवेक्खा (अनुप्रेक्षा) नियय सत्तिए जल्हिगि रयउ, जय किंपि वि अहिउ हीण, कर्ता-अल्हू कवि अक्खर-मत्त-विहीण, सोहंतु मुणीसर-विगय-मला, मोक्खह कारण जाणि भासिय जिणेंद णाणि, आदिभागःदोदह भावरण जाणि मणि भावि जिया ॥१६ राव जिय छंडहि......मनुमंडहि देव-गुरु-वयण सो गहु गहहि । ८२ बारह-अणुवेक्खा रासो अप्पु थिरु मनहिं परु अवगणहिं चेइ जिय भवसरि मा (द्वादश अनुप्रेक्षा रास) पउहि । कर्ता-पं० योगदेव सतगुरु दीसइ सीखु होहि जिय सामिय पंचमगइ करि जिम प्रादिभाग: चाहि। णविविचलण मूणि सून्वयहो कर सुरखयर महोरगमहिय हो। प्रन्तिमभाग:सयलविमल केवल गुण सहिय हो, बारह अणुवेक्खउ णिच्च णिरंजण णाणमउ चित्तधरि भवियहु मल्हु कांव कहमि । वज्जरए। भव्वयणहु णम विणयहु सहियहुणवि विचलण मुणि सोमणि पढड पढावए हहहइ सो णनो सिवपुरा जार सुव्वयहो । सरए ॥११॥ अन्तिमभागः ८५ हरिवंस पुराण एह रासु जिणवर पयभत्तं विरयउ कभणयरें णिवसंतें। जोगदेव पंडिय पुरउ विसयसेण मूणिवर पयभत्त। कर्ता-कवि श्रुतकीर्ति पढइ सुणइ जो सहहइ सो णरु सिव सुह लहइ पयत्त । रचना १५५२ णवि विचलण मुणि सुव्वय हो ॥२०॥ पादिभाग:८३ अणुवेक्खा दोहा (अनुप्रेक्षा दोहा) ससिइण वोमंसइ ते हरिवंसइ पाव-तिमिर हा विमलयरि । कर्ता-लक्ष्मीचन्द्र गुण-गण-जस-भूसिय तुरय अइसिया सुब्वय-णेमियहलिय मादिभाग:पणविवि सिद्धमहारिसिहि जो परभावहं मुक्क । सुरवइ-तिरीड-रयणं किरणंवु-पवाह-सित्त-गह-चलणं । परणाणंद परिट्ठियउ चउग्इ गणमहं चुक्क ।।१।। पणविवि तह परम जिणं हरिवंस कयत्तणं वुच्छे ॥१॥ जइ वीहउ चउगइ गमण तो जिण उत्तु करेहि । चरमभाग:दो दह प्रणवेहा मुणहि लहु सिव सुक्खु लहेहिं ॥२॥ तह कमेण सुयणाणिउ छिण्णइं, मधुव प्रसारण जिणुभणइं, संसारुवि दुह-खाणि । . ... मंग अंग देसई धर अण्णइं। एकत्त वि अण्णत्तु मुणि असुइ-सरीरु वियाणि ॥३॥ पंचम काल चलण पढ मिल्लई, प्रासब-संवर-णिज्जर वि लोया भाव विसेसु । तह उवण्ण पायरिय महल्लई। धम्मुवि दुल्लह वोहिजिय भावें गलय किलेसु ॥४॥ कुदकुद गणिरणा अणुकम्मई, मन्तिमभाग: जायइ मुणिगण वितिह सहम्मई । जो प्रप्पा णिम्मलु मुणइ वय-तव-सील-समाणु । गणवाल तवा गेसरि गच्छई, सो कम्मक्खउ फुड़ करइ पावइ लहु निव्वाणु ॥४६॥ मंदिसंघ मणहर मई सुच्छई, हरि।

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