Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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૨૦]
अन्तिम भाग:--
घत्ता:
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महो महो सत्यवाहि कुलभूसरा,
रिगसुरिण धम्मु तउ कहमि अहिंसाः । विरणकज्जेरण जीउ जे मारहि,
कु' तलवड प्रसिथाय [प ] हाहि । ते दालिद्दिम- दुह उप्पज्जह, गर (य) पडता केरण घरेज्जहि । जे महिलास जाहिं परयारहि, जाहि पुरिस ते संढ ! वियारहि । जे पेसुण भासंरय अणुदिणु, सुह जरिंग रिंगदा कहि जि कुम्मर । रिगच्च गुत्ति उप्पज्जहि ते गर, होण सत्त बहु दुक्ख परंपर दउलायंति भमहि परिद्धे,
मंति इत्थु वि विध्दें । खास- सास बहु वाहहि गीढा (हा ) भबि भवि हुति पुरिसभई मूढा । छिंदह दहहि विविह जे तरु वरु, कुवाहित दो सइ गरवर ।
वीर सेवा मन्दिर-प्रन्थम ।
जे कहहि दिट्ठ विदिट्ठउ, असुवउ सुबउ कहति । ते प्रधवहिर रण पाविय, दुक्किय भमंति ||२०||
( गुटका घार भंडार) ६७ हरिसेण चरिउ (हरिषेण चरित्र ) प्रादिभाग:
भावें पर विवि मुरिण सुव्वय हो चरण कमल भवताव महा । नि (रि) सुरहु भवियहु बहु रस भरियहु हरिसेणहु पयडेमि कहा ॥ जिरण सासरिण दुरिय पणासरिग महो जग कण्ण महोच्छउ दिज्ज हो । विमलुज्जलु तव निम्मलुयउ हरिसेरण हो. गरिय मुरिपज्ज हो ।
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श्रान्तमभागः
बुहयरगाह व परियव्वहो गुरु उवएसि जारियो । काविज्जीयइ जिणु परणवेप्पिणु तें हरिसेण सम्माणियो । महा चक्रवर्ती हरिषेण चरित्र समाप्तं ।
६८ मयरण पराजय ( मदन पराजय ) कवि हरदेव
मंगलाचरणः
कमल-कोमल-कमलंक तिल्लोक मलंकिय कमल गय । कमल हणरण सिहरेण प्रचिय, कमलपिय कमलपिय । कमल भवहि कमलेहिं पुज्जिय ।
ते परमप्पय पय कमल परणमवि कलिमलचत्त । मयद जिगदह जेमरणु पयडमि साजइ वत्त । X
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X अन्तिमभाग:
विसय सेण मुणिवर मच्छेसइ, तंचारितनयर रक्खेसइ । इम: भगेवि गउ मोक्ख हो जिावरु विसयसेणु पाल
3.
संजमभरु
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प्रांत का इवि साहिउ, मुणिवरतं खमतु ऊरणाहि उ जिग वरि दे पये पकय भसलि नाविज्जाहर गणहर कुसलि मयण पराजएण विरइय कह, हर एविरेति विघुहयरण स गुरदोस पयाउ प्रक्खिउ भाउ महु छलेण विरइय कह भव्वयण - पियारी हरिसंजरणेरी नं (पं) दउ चउविह संघहं ॥ इयमयपराजयचरिए हरिएवं कइ विरइए मयरा पराजयरणाम दुज्जो परिच्छेश्रो समत्तो ॥
प्रति प्रामर भंडार, सं० १५७६
६९ सिद्ध चक्क कहा (सिद्धचक्र कथा ) पं० नरसेन
प्रादिभाग :
सिद्धचक्कविहि रिद्धिय गुणहं समद्धिय परणविवि सिद्धि मुणीसर हो पुरण अक्खमि भव्वहं वियलिय गव्वहं सिद्धि महापुरि
सामिय हो
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