Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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जननन्थशास्तसंग्रह
मादि माग:-
कवि रघु
४७-वित्तसार (व्रतसारं) कवि रमधू
४८-पुण्णासवकहा ' पुण्याभव कथा) . मादिमागःसासयपयपत्ताएं वसुगुएजुत्ताए कम्मचत्ताएं ।
परणषिवि सिरिवीरं पाण-गहीरं भव-जलरिणहि-परतारपयं । शामिऊएं सिद्धाणं भवामि एं वित्तवारक्खं ॥१॥ पुरणासब-सत्यं सुरहर-पंथं भणमि कहाणिउरूवमयं ॥१॥ परहाइ परमेट्ठीणं बारस-अंगाण सूरिविदाएं ।
बंदिवि पुणु परहंताण पयं, तयरण-सुद्धीए पय तह पएवेप्पिर ति-जय झेयाएं ॥२॥
इंसिय-सासय-पिल्लेव-पर्य। अग्गोयवस-यह-ससि दाण-विहाणेए णाइ-सेयंसो ।
बसु कम्म-पयडि-सुय-सिद्धाणं, कायए मए क्रय-तोसो हालू साहस्स अंगमो विदिदो॥३॥
सम्मत्ताईयगुण-रिवाएं। परमेडि-पायभत्तो चत्तो विसपाए रत्तु पत्ताएं। ::
लोयग्गसिहरि दिदि-पत्ताएं, पिभो सुविणीमो आदहिहाण साह सोलंगो ॥४॥
उप्पत्ति-मरण-जर-चत्ताए । तेपाऽविय भव-भीए एाविय सीसेए धम्मराएए ।
छत्तीस-गुणायर-सूरीएं, भएिमो सुकइ-पहागो लहिवि खएं पावरों ऐमं ॥५॥
रायाइदोस-कय-दूरीएं। भो सत्योवहि-पारय रइधू कइ-तिलय पइजि बहु भेयः ।
दो-दह-सुप्रंग-मज्झयरिणरयं, चरिय पुराए विरइवि सज सरसें पीएिमो भुवएो।।।
बज्जिय-सग-भय-पाढय विरयं । महु पुरा माएस-कमलं संकुइनो प्रत्यि जएए-भय-भीमो ।
स-सरूव सुहायर साहणं, तुह बयण-सूर-किरणहिं तं वियसइ रिगच्च कालम्मि । ७॥
परि सेसिय-चउ-विकहा-कहएं। जाइबिहु प्रत्थि प्रणग्यो सम्मत्तो वय-तवाण धुउसारे ।
विहम इव णिय रसरत्तयहं, तहवि हु तेण जुदो कुवि बाउसु जाय गरयम्मि ॥ ८ ॥
एयहं वि संमारणसकमलिणिरू, जह पुशु चरिय-पउत्तो सम्मत्तो होदि भव्वजीवाणं ।
तिरयण सुद्धिए धारेवि थिरू। ता पुग्गइ बहु गच्छइ एरिसु माहप्पु वित्तस्स ॥९॥ पत्ताजह करण्य-कडय-जडिमो रयणो दीसह णिरुवमो लोए। जिण हिमगिरिवयण पोमदहहो सरसइं सुरसरि गिमिया। तह संजमेण सहिदो सम्मत्तो भब्व-सत्ताएं ॥१०॥
जासा फिडेप्पिणु मल-पडखू सुमइं पयत्या रणमिया ॥१॥ तमहं परित्त सारं सोऊं वेच्छेमि तुम्ह वयरणादो।
दो-विह-सव-पह मग्गेसरेण, जि हवदि जम्मु सहलो सासय-पह-संबलो चेव ॥ ११ ॥
संडिय झारणा सिरईसरेण । इदि वाया अवसाणे कइणा भरिणदो विप्रड्ढवयणेण ।
पण-इंदय-उरय-दियेसरेण, प्राइभवं प्राइम ब्वं स-पर-हिंद तुम्ह वयणेदं ॥ १२॥
भब्वहं मणकंज-दिणेसरेण । जगमल्ल ताप-पावरण सुहभावण सुद्ध-चित्त कइ-रंजण।
गोयम-गणि-अणुकम्म-पयट्ठिएण, अपह एउ पउत्तं तं वसिदं माणसे प्रम्ह ॥ १३ ॥
सिरि कमलकित्ति गुरुणा जवेण । जो कवि चरित्तसारं पुच्छदि भणदीह सुणदि कथरामो।
एकहि दिणि धम्माएसु दिरणु, सो भवत्तणगुणजुमो हवदि कयत्यो जणे-पुज्जो ॥ १४ ॥
मो बुह कि वासरु गमंहि सुषु । भएमीह वित्तसारं स मइ विहूईए दोससंगहणे।
स-कइत्त-विणोएं जाउ कालु, मा होंतु जणा तप्पर सोहि सुद्धं हि कायब्वं ।। १५ ।।
पुरणासउ विरयहि जरिण विसालु। अन्तिममागः
पुण्णा सवेण सुह सिद्धि होय,
तं विणु माणुस भउ विहलु लोय । हरसिंघ संपाहिव-सुमो कइत्त-पन्भार-बरिणय-खंघो।
सुह माउ पवट्टइ जेण जेण, गुरुयण भत्ति कुणतो स एंदउ उदयराएण ॥ १३४ ॥
तं तं कायबउ इह बुहेण । गुणियण-पविहिय-रामो सुपत्तचामो सदिहि गिम्मामो। महकामिऊण तारिसि वयणु तेण, मादूसाहू चिरं इह जीव तिय-पुत्त-पोत्तेहिं ॥१३५ ॥ तं पड़ि वाणउ पमिय सिरेण ।

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