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प्रस्तावना
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६७वीं प्रशस्ति 'हरिसेरणचरिउ' की है, जिसके कर्ता अज्ञात हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में हरिषेण चक्रवर्ती का जीवन परिचय दिया हुआ है । चरित सुन्दर और शिक्षाप्रद है। यह चक्रवर्ती बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के समय में हुए हैं । यह बड़े वीर धर्मात्मा और अपनी माता के आज्ञाकारी पुत्र थे । चक्रवर्ती की माता जैनधर्म की श्रद्धालु और धर्मात्मा थी, उसकी भावना जैन रथोत्सव निकलवाने की थी, परन्तु कारणवश वह अपनी भावना को पूरा करनेमें समर्थ नहीं हो रही थी। हरिषेण चक्रवर्ती ने अनेक जिनमन्दिर बनवाए, प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न कीं और महोत्सवपूर्वक रथोत्सव निकलवाकर अपनी माता की चिरसाधना को सम्पन्न किया । इनके एक पुत्र ने कैलाश पर्वत पर तप धारण किया और कर्म - सन्तति का उच्छेदकर अविनाशीपद प्राप्त किया था । उससे चक्रवर्ती को भारी सन्ताप हुआ, किन्तु ज्ञान और विवेक से उसका शमन किया और अन्त में स्वयं चक्रवर्ती ने राज्य-वैभव को प्रसार जान दीक्षा लेकर आत्म-साधना की और अविनाशी स्वात्मfor को प्राप्त किया । ग्रन्थ की रचना कब और कहाँ हुई ? यह कुछ ज्ञात नहीं होता, सम्भव है रचना १५वीं शताब्दी या उससे पूर्ववर्ती हो ।
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६८ वीं प्रशस्ति 'मयण पराजय' की है जिसके कर्ता कवि हरदेव हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ के दो परिच्छेदों में से प्रथम में ३७ और दूसरे में ८१ कुल ११८ कडवक हैं। जिनमें मदन को जीतने का सुन्दर सरस वर्णन किया गया है । यह एक छोटा-सा रूपक खण्ड काव्य है । इसमें पद्धडिया, गाथा और दुवई छन्द के सिवाय वस्तु ( रड्ढा) छन्द का भी प्रयोग किया गया है। किन्तु इन छन्दों में कवि को वस्तु या रड्ढा छन्द ही प्रिय रहा है ' छन्द के साथ ग्रन्थ में यथा स्थान अलंकारों का भी संक्षिप्त वर्णन पाया जाना इस काव्य ग्रंथ की अपनी विशेषता है। ग्रंथ में अनेक सूक्तियां दी हुई हैं जिनसे ग्रंथ सरस हो गया है। उदाहरणार्थं यहाँ तीन सूक्तियों को उद्धृत किया जाता है
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१. असिधारा परण को गच्छइ - तलवार की धार पर कौन चलना चाहता है
२. को भुयदंडहिं सायरु लंघहि - भुजदंड से सागर कौन तरना चाहेगा
३. को पंचारणरणु सुत्तउ खवलइ - सोते हुए सिंह की कौन जगाएगा ।
ग्रन्थ का कथानक परम्परागत ही है, कवि ने उसे सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है, रचना का ध्यान से समीक्षण करने पर शुभचन्दाचार्य के ज्ञानार्णव का उस पर प्रभाव परिलक्षित हुआ जान पड़ता है । जो तुलना करने से स्पष्ट हो सकता है ।
इस रूपक - काव्य में कामदेव राजा, मोहमंत्री, अहंकार और अज्ञान आदि सेनापतियों के साथ भावनगर में राज्य करता है । चारित्रपुर के राजा जिनराज उसके शत्रु हैं; क्योंकि वे मुक्तिरूपी लक्ष्मी से अपना विवाह करना चाहते हैं । कामदेव ने राग-द्वेष नाम के दूत द्वारा जिनराज के पास यह संदेश भेजा कि आप या तो मुक्ति - कन्या से विवाह करने का अपना विचार छोड़ दें, और अपने ज्ञान, दर्शनचरित्ररूप सुभटों को मुझे सोंप दें, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाएँ। जिनराज ने कामदेव से युद्ध करना स्वीकार किया और अंत में कामदेव को पराजित कर अपना विचार पूर्ण किया ।
१. प्राकृत- पिंगल में रड्ढा छन्द का लक्षण इस तरह दिया है। जिसमें प्रथम चरण में १५ मात्राएँ, द्वतीय चरण में १२ तृतीय चरण में १५, चतुर्थ चरण में ११, और पांचवें चरण में १५ मात्रा हों, इस तरह १५ × १२ × १५ × ११ X १५, कुल ६८ मात्राओं के पश्चात् अन्त में एक दोहा होना चाहिए, तब प्रसिद्ध रड्ढा छन्द होता है । जिसे वस्तु छन्द भी कहा जाता है । (देखो, प्रा० पिं० १ - १३३ )