Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 9
________________ प्रभेद होते हुये भी एक तिर्यग्जातित्व है। उसी प्रकार मनुष्यों में भी विभिन्न जातियां होते हुये भी एक ही मनुष्य जाति कही जाती है। जिस प्रकार तिर्यग्जाति की अनेक भेद रूप हाथी. घोड़ा हरिण आदि जातियों में परस्पर मैथुन वर्जनीय और अप्राकृतिक है उसी प्रकार मनुष्यों की विभिन्न जातियों में भी परस्पर रजो वीर्य सम्बन्ध वर्जनीय हो तो आपत्ति नहीं हो सकती। पचेंद्रिय जातिगत मनुष्य जाति के समान एक भेद तिर्यग्जाति के प्रभेदों हाथी घोड़े वैल आदि में जिस प्रकार मैथुन कर्म और उससे होनेवाला परिणाम अवांछनीय है उसी प्रकार मनुष्य जाति के प्रभेदों में भी वह सम्बंध वर्जनोय होना उचित है । जाति बार कर्म। ___ जाति नामका नाम कर्म है तो उसके जितने भी भेद उपभेद प्रभेद हैं वे भी सब नाम कर्म जनित ही हैं यह तो निर्विवाद सिद्ध है ही। मनुष्य जाति चार वर्षों में विभक्त है,ब्रामण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । ऐसी अवस्था में मनुष्य जाति के ये चार भेद वा इन चार भेदों से आगे, जो भी इनके उपभेद प्रभेद होंगे या हैं वे सब नाम कर्म जनित ही हो सकते है इसीलिए प्राचीन शास्त्र कारों ने ब्राह्मण क्षत्रियादिको कर्म से कहा गया है। यहां कर्म का अर्थ नाम कर्म है परन्तु कुछ लोग अपने स्वच्छद विचारों को शास्त्र का रूप देने के लिए कर्म का अर्थ वृत्ति ( जीविका) करके जनता को भ्रम में डालते है परन्तु यह

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