Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 16
________________ सिद्धि । इसी प्रकार जो लोग ब्राह्मण जाति में उत्पन्न हाने मात्र से ही अपने को उच्च मानते हैं और ब्राह्मण्य कर्म नहीं करते उनके लिए प्राचार्य श्री अमितगति स्वामी का कहना हैं कि न जातिमात्रतो धर्मो लभ्यते देहधारिभिः । सत्यशौचतपः शीलध्यानस्वाध्यायबजितैः ।। आचार मात्र भेदेन जातीनां भेद कल्पनम् । न जाति ब्राह्मणोयास्ति नियता क्वापि तारिखकी । ब्राह्मण क्षत्रियादीनां चतुर्णमपि तत्वतः । एकैव मानुषी जाति राचारेण विभज्यते ॥ संयमो नियमः शीलं तपो दानं दमो दया । घिद्यते तात्विको यस्यां सा जातिमहती सताम् ।। गुणैः संपद्यते जातिगुणध्वंसैविपद्यते । यतस्ततो वुधैः कार्यो गुणेप्वेवादरः परः ।। जातिमात्र मदः कार्यो न नीचत्व प्रवेशकः । उच्चत्वदायकः सद्भिः कार्यः शोल समादरः ।। भावार्थ-कोई यह कहे कि सत्य शौच तप शील ध्यान और स्वाध्याय से रहित हाने पर भी प्राणियों को जातिमात्र ( केवल जाति ] से ही उच्यता प्राप्त हो जाती है मो बात नहीं है यहां धर्म धारण के लिए जाति का निषेध करना होता तो जातितः या जातेः ऐसा पाठ होता परन्तु ' जातिमात्रतः ' ऐसा पाठ होने से स्पष्ट विदित होता हैं फि धर्म लाभ में केवल जाति ही कारण नहीं

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