Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 48
________________ सारांश यह है कि संयम का तो कहीं दर्शने भी नहीं होता । आज उन्हीं देशों का केवल भौतिक आदर्श भारत के सामने है, भारत का वह त्यागमय जीवनादर्श प्रथम तो भारत में विदेशी शासन ने ही कोसों दूर चला दिया परन्तु अंग्रेजों के शासन के बाद तो और भी दूगनुदूर हो गया । आज के भारत नेता कहलाने वाले अंग्रेजों के औरस पुत्रों से भी अधिक उत्तराधिकारी सिद्ध हो रहे हैं। जैन धर्म का उद्देश्य परम पवित्र और त्यागमय जीवन विताना रहा है। उसके प्रत्येक पदपद में त्याग और संयम की भावना तथा प्रवृत्ति है । जो व्यक्ति जैनधर्मी कहला कर अनगेल भोग और असंयम को बात करता है वह 'गोमुखव्याघ्र जैन' कहा जा सकता है, वास्तविक नहीं । संसार में जैन धर्म इसीलिए सम्मान्य और पूज्य है कि मानव जीवन के निर्वाह की प्रणाली उस में बहुत सीमित है उसका प्रत्येक प्रकार और कार्य, संयम भार त्याग से श्रोत प्रोत और संवद्ध रहता है। जैन सिद्धांत में धर्म का फल भोग राग मानना निषिद्ध है । धर्म का फल भोग और राग न हो कर आत्मदर्शन और आत्मविशुद्धि हैं। आत्मदर्शन और श्रात्मविशुद्धि के लिए भोग विषय कांक्षा को अपराध और दोष माना गया है। धर्म, सुख का ही कारण होता है सुखाभास अथवा दुःख का नहीं । भोगरागादि सुखाभास अथषा परिणाम में दुःख रूप ही

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