Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 55
________________ भारत के साथ उमका व्यवहार भी दुर्नीति पूर्णहीथा इसी लिए उनको जाना पड़ा । कोई भी शासन तब ही वहां से हटता है जब कि उस में भीतरी दोष घुस जाते और अंदर ही अंदर सड़ांध पैदाहो जाती है। वतमान में जो कांप मी शासन है उसकी समाप्तिभी कि पी के करने में म होगी किन्तु उसमें समाविष्ट दोषों से ही होगी। देश की पतंत्रता तथा परतत्रता भी अपने ही गुण दोषों पर निर्भर है। यदि शासन के नियमों तथा श्रादश सुन्दर नीति के साथ सब धर्मों तथा जातियों के साथ निष्पक्षता का व्यवहार करते हुये जनता को अपनी औरस संतति के समान समझा जाकर शासन चलाया जाय ता कभी कोई देश परतंत्र नह' हो सकता। गृहकलह उत्पन्न न होने देना ही स्वतत्रता और शांतिका साधन है । गृहकलहमें कारण अनुचित राग द्वप है जाति भेद कदापि नहीं । एक जाति के लोगों में ही नहीं किन्तु भाइयों भाइयोंमें भी आज संघर्ष देखा जाना है जच कि वे दोनों भाई भाई और सपान जाति के ही हैं । उस संवर्ष में एक मात्र कारण कपाय तथा अव्यवहार्थ राग द्वष ही है। विभिन्न जाति वालों में भी पारस्परिक प्रेम देखा जाता है और वह भी ऐसा कि सगे भाइयों में भी नहीं ! इसीलिए कहना पड़ता है कि जाति भेद देश की परतन्त्रता में न कभी कारण बना और न बनेगा। अखण्ड-भारत के खंडित होने में जाति-भेद को कारण मानना नितांत भूल है। वास्तव में भूल राजनैतिक नेताओं की

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