Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 86
________________ ८१ यहां विवाह को असंकर अर्थात् अपनी जाति में करने को कहा गया है। Eng - - ( ६ ) मानव को मुक्तिलाभ के लिए सात परम स्थान बतलाये है जिनमें पहला 'सज्जाति' है । सजाति का लक्षए यह बतलाया गया पितुरन्वयशुद्धिया पत्कुलं परिभाप्यते । मातुरन्त्रयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते ॥ त्रिशुद्धिरुभयस्यास्य सज्जातिरनुवर्त्तिता । यत्प्राप्तौ सुलभांभोवेरयत्नो पनते गुणैः ॥ ६६ ॥ (श्री ० पु० पर्व ३८) अर्थात् माता और पिता दोनों को वंश शुद्धि का नाम 'सज्जाति' है । ( ७ ) भवतो ननु पुण्यमत्र हेतुर्यदविज्ञातकुलेन तेन नोडा । तदियं स्त्रकरेण दीयतां मे हठकारः क्रियते मया न यावत् ॥ (चन्द्रप्रभ च० सर्ग ६ श्लोक ६४ भगवान् चन्द्रप्रभ स्वामी के पूर्व जन्म को कथा में यह वर्णन है कि जयवर्मा ने अपनी कन्या शशिप्रभा की सगाई अजिनसे . Tea के साथ करदी थी ब धरणीधर ने कहा कि तुम्हार

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