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जीपंधरस्तु जग्राह वार्धारां तेन पातिताम् । पद्मास्यो योग्य इत्युत्का न योग्ये सतां स्पृहा ।। ७४ ।।
(१२) शूद्रोऽधुयस्कराचार वपुः शुद्वाचाऽस्तु तादृशः । जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक् ।।२२।।
__(सा० ध० हि अ०) यहां “जात्या हीनः" इस प्रकार के पद के आने मे विदित होता है कि जाति से हीनता और उच्चता भी कोई वस्तु है ।। इस श्लोक की संस्कृत टीका में स्वयं प्रथकार लिखते हैं कि
जातिगोत्रादिकगाणि शुक्लध्यानस्य हेतवः ।
येषु स्युम्ते भयो वर्णाः शेगः शूद्राः प्रकीर्तिताः ।। भावार्थ- जिनके जाति गोन्न तथा कर्म शुक्ल ध्यान के साधक हों
वे त्रिवर्ण वाले हैं बाकी सब शूद्र हैं। इस प्रमाण से भी सिद्ध होता है कि मोक्ष लाभ के प्रधान कारणभूत
शुक्ल ध्यान में जाति गोत्रादि भी कारण होते है। इसके अतिरिक्त गोत्र कर्म के दो भेद हैं- उच्च गोत्र और नीच गोत्र । उच्च गोत्र का लक्षण यों बतलाया है कि
" यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म कारणं त दुचर्गोत्रं तद्विपरीतेषु गहितेपु जन्म कारणं नीचैर्गोत्रम्"
अध्याय ८ सूत्र १२]