Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 87
________________ यह पुण्य ही है कि अभी तक उस 'अविज्ञात कुल' के साथ शशिप्रभा का विवाह नहीं हो पाया है अर्थात्-जिसका जाति कुल अविज्ञात हो उसे लड़की नहीं देना चाहिए। इस प्रमाण से भी सिद्ध है कि विवाह में जातिकुल का विचार अवश्यमेव करना ही चाहिये। 'नीतिसार' में लिखा है कि उस समय जाति संकरता से डरने वाले बड़े लोगों ने समस्त जनता के उपकार के लिए ग्रामादि के नाम पर कुल स्थापित कर दिये तदा सर्वोपकाराय जातिसंकर भीरुभिः । महद्धिकः परं चक्र ग्रामाद्यभिधया कुलम् ।।५।। यहां जाति संकरता को भय को वस्तु बतलाई है। 'लाटी संहिता श्रावकाचार' में लिखा है कि स्वजाति की परिगीता कन्या ही धर्मपत्नी कहलाती है और उसी द्वारा उत्पन्न पुत्र भविष्य में धर्मकार्यादि का उत्तराधिकारी हो सकता है । परिणीतात्मजातिर्दि धर्मपत्नीति सैव च । धर्मकार्ये हि सधीची यागादौ शुभकर्मणि ॥ ८५ ॥ सूनुस्तस्यां समुत्पन्नः पितुधर्मेऽधिकारवान् । स पिता तु परीक्षः स्यादेवात्प्रत्यक्ष एव वा ।। ८६॥

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