Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 85
________________ पश्चाच्छीवृषभादभूदृषिगणः श्रोश उच्चस्तरा मित्थं हे नृप ! खेचरान्वययुता वंशास्तबोक्ता मया ।। ( हरिवंश पुराण पर्व १३ श्लो० ३३ ) भावार्थ :-हे श्रोणक ! सर्व प्रथम इक्ष्वाकु वांश, तदनंतर सूर्यवंश सोमवंश, कुमांश, उग्रवंशादि क्रमशः उत्पन्न हुये । वृषभ नाथ भगवान से श्रीवश की उन्नति हुई। इस प्रकार विद्याधरों के अंशों से अन्वित जो कुल है वे पहले कहे जा चुके हैं। भगवान् श्रादि नाथ स्वामी के पिता श्री नाभि राजा को जब भगवन् के विवाह का विचार हुआ, तब उन्होंने निश्चय किया कि किसी योग्य कुलकी कन्या का प्रबन्ध करना चाहिये, चाहे जिसा कन्या का नहीं जो कि 'उचिनाभिजना' शब्द से प्रकट है: ततः पुण्यवती काचिदुचिताभिजना वधूः । कलहंसव नि:पंकमस्या वसतु मानसम् ॥ (आ० पु० पर्व १५ श्लो० १८७) यथा स्वस्योचितं कर्म प्रजा दधुरसंकरम् । विवाह जातिसंबंधव्यवहारं च तन्मतम् ।। (श्रा० पु. पर्व १५ श्लो० १८७)

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