Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ अर्थ-ब्राह्म विवाह, दैव विवाह. आर्ष विवाह, प्राजापत्य विवाह, आसुर विवाह, गांधर्व विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह । इनमें आदि के चार धर्म्य विवाह और अन्तिम चार अवम्य विवाह कहलाते हैं। धर्म्य-विवाह सजाति में ही होता है । अषम्य विवाह तो विजामें भी सम्भव हो सकता है परन्तु प्रतिलोम ही होता है, अनुलोम नहीं । अनुलोम वियाह सजाति में ही होता है। सब जाति का पुरुष नीच जाति की कन्या से विवाह करले वह प्रतिलोम विवाह होता है । नीच जाति वाले का उच्च जाति की कन्या से विवाह करना न अनुलोम धिवाह है और न प्रतिलोम विवाह ही है। प्रतिलोम विवाह पहले भी होते थे और अब भी होते हैं . परन्तु उससे लाई हुई पत्नी धर्मपत्नी नहीं होती वह भोग पत्नी ही कहलाती है। भोगपत्नी से उत्पन्न संतति को माता पिता की चल अचल संपत्ति का पूर्ण अधिकारी भी नही होता । श्री आदिनाथ पुराण प्रन्थ के १६वे पर्व में जो निम्नलिखित २४७-२४८ के दो श्लोक हैं वे भी प्रतिलोम विवाह के ही सूचक

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95